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४६४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
'वे मुनि धन्य हैं जिन्होंने संघ के मध्य में समाधिमरण ग्रहण कर चार प्रकार की आराधनारूपी पताका को फहराया'. 'वे ही भाग्यशाली हैं और ज्ञानी हैं तथा उन्होंने समस्त लाभ पाया है जिन्होंने दुर्लभ भगवती आराधना (सल्लेखना) को प्राप्त कर उसे सम्पन्न किया है'. 'जिस आराधना को संसार में महाप्रभावशाली व्यक्ति भी प्राप्त नहीं कर पाते, उस आराधना को जिन्होंने पूर्णरूप से प्राप्त किया उनकी महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ?' 'वे महानुभाव भी धन्य हैं, जो पूर्ण आदर और समस्त शक्ति के साथ क्षपक की आराधना कराते हैं.' 'जो धर्मात्मा पुरुष क्षपक की आराधना में उपदेश, आहार-पान, औषध व स्थानादि के दान द्वारा सहायक होते हैं वे भी समस्त आराधनाओं को निर्विघ्नपूर्ण करके सिद्धपद को प्राप्त होते हैं.' 'वे पुरुष भी पुण्यशाली हैं, कृतार्थ हैं जो पापकर्म रूपी मल को छुटाने वाले तीर्थ में सम्पूर्ण भक्ति और आदर के साथ स्नान करते हैं. अर्थात् क्षपक के दर्शन-वन्दन-पूजन में प्रवृत्त होते हैं.' 'यदि पर्वत, नदी आदि स्थान तपोधनों से सम्बन्धित होने से तीर्थ कहे जाते हैं और उनकी सभक्ति बन्दना की जाती है तो तपोगुणराशि क्षपक, तीर्थ क्यों नहीं कहा जायेगा' अवश्य कहा जायेगा. उसकी वन्दना और दर्शन का भी वही फल प्राप्त होता है जो तीर्थ-वन्दना का होता है.' 'यदि पूर्व ऋषियों की प्रतिमाओं की वन्दना करने वाले के लिए पुण्य होता है तो साक्षात् क्षपक की वन्दना एवं दर्शन करने वाले पुरुष को प्रचुर पुण्य का संचय क्यों नहीं होगा ? अपितु अवश्य होगा.' 'जो तीव्र भक्ति सहित आराधक की सदा सेवा-वैयाकृत्य करता है उस पुरुष की भी आराधना निर्विघ्न सम्पन्न होती है अर्थात् वह उत्तम गति को प्राप्त होता है.'
क्या जैनेतर दर्शनों में यह महत्त्वपूर्ण विधान है ? यह सल्लेखना जैनेतर जनताके लिए अज्ञात विषय है, क्योंकि जैन साहित्यके सिवाय अन्य साहित्य में उसका कोई वर्णन उपलब्ध नहीं होता. हाँ, ध्यान या समाधि का विस्तृत कथन मिलता है, पर उसका अतःक्रिया से कोई संबंध नहीं है. उसका संबंध केवल सिद्धियों को प्राप्त करने अथवा आत्म-साक्षात्कार से है. वैदिक साहित्य में सोलह संस्कारों में एक अन्त्येष्टि संस्कार आता है जिसे ऐहिक जीवन के अंतिम अध्याय की समाप्ति कहा गया है और जिसका दूसरा नाम मृत्यु-संस्कार है. यद्यपि इस संस्कार का अन्तःक्रिया से संबंध है किन्तु वह सामान्य गृहस्थों का किया जाता है. सिद्ध--महात्माओं, संन्यासियों या भिक्षुओं का नहीं, जिनका परिवार से कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता और न जिन्हें अन्त्येष्टि--क्रिया की आवश्यकता
जो उवविधेदि सव्वादरेण आराधणं खु अण्णस्स । संपज्जदि णिन्विग्धा सयला आराधणा तस्स । ते वि कदत्था धरणा य हुन्ति जे पावकम्ममलहरणे। रहायन्ति खवय-तित्थे सव्वादरभत्तिसं जुत्ता। गिरि-पदिआदिपदेला तित्थाणि तबोधणेहिं जदि उसिदा। तित्थं कधं ण हुज्जो तवगुणरासी सयं खवओ। पुन्न-रिसीणं पडिमाउ बंदमागरस होइ जदि पुरणं । खवयस्स वन्दो किह पुण्णं विउलं ण पाविज्ज । जो ओलग्गदि आराधयं सदा तिब्व-भत्ति-संजुतो।
संपज्जदि णिविग्घा तस्स वि आराधणा सयला ।—शिवार्य, भ० आ०१६६७-२००५. १.२. डा० राजबली पाण्डेय, हिन्दू संस्कार पृ० २६६.
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