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पूर्णतया भौतिकतावादी विचारधारा है जिसका संबंध मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है और “संवर" तथा "निर्जरा" मोक्ष वर्तमान जीवन से ही है।
के साधन है | "संवर" का अर्थ है कर्म आने के द्वार को रोकना परन्तु अन्य प्रबुद्ध विचारकों एवं चिन्तकों ने दृश्यमान जगत
और "निर्जरा" का अर्थ है “पहले से आत्मा के साथ बंधे हुए के अतिरिक्त उत्तम या अधम परलोक एवं मृत्यु के बाद पुनर्जन्म
कर्मों को क्षय करना" | बौद्ध दर्शन के अनुसार भव-संताप परम्परा एवं जन्मांतर भी माना है । अतएव उन्होंने धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ
का विच्छेद होना मोक्ष है और संसार को दुःखमय, क्षणिक एवं माना और स्पष्ट किया कि परलोक और पुनर्जन्म में सुखप्राप्ति धर्म
शून्य मय समझना मोक्ष का साधन है । नैयायिक, वैशेषिक, के पुरुषार्थ द्वारा ही संभव है | जैन-धर्म की मान्यता के अनसार ।
सांख्य-योग आदि दर्शनों ने भी दुःख का ध्वंस हो जाना मोक्ष माना अर्थ और काम भौतिक सुख हैं जो क्षण-भंगुर हैं जबकि धर्म के मार्ग से प्राप्त मोक्ष का सुख अनन्त है | जैन दर्शन के अनुसार जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष का सीधा अर्थ है "समस्त कर्मों जिन का अनुयायी अपने आराध्य तीर्थंकर देव से सदैव इसी से मुक्ति" । इसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्म आते हैं अनन्त सुख की प्राप्ति की कामना करता है । यह बात 'जय क्योंकि जैसे हथकड़ियाँ चाहे सोने की हो या लोहे की, मनुष्य को वीयराय' सूत्र की प्रथम गाथा से स्पष्ट होती है जो इस प्रकार है:- दोनों ही बन्धनयुक्त रखती है, उसी प्रकार जीव को उसके शुभ "जय वीय राय । जय गुरु । होउ मम तुह प्रभावओ भयवं ।
और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बंधन में रखते हैं । अन्य शब्दों
में, मोक्ष का अर्थ है "राग और द्वेष' दोनों का पूर्ण क्षय | वस्तुतः भवनिव्वेओ मग्ग णुसारिया, इट्ठ फल सिद्दी॥
कर्म बंधन के कारणों एवं पूर्व से संचित कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय अर्थात् हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ? आपके प्रभाव से मुझे हो जाना ही मोक्ष है । तात्त्विक दृष्टि से कहा जाय तो आत्मा का संसार से विरक्ति, मोक्ष मार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल (अर्थात् अपने शुद्ध स्वरूप में सदा के लिये स्थिर हो जाना ही मोक्ष या मोक्ष के अनन्त सुख) की प्राप्ति हो ।
मुक्ति है। मोक्ष और मोक्षप्राप्ति के साधन:
यह बात ध्यान रखी जाय कि मोक्ष का अर्थ जीव का अभाव मोक्ष पुरुषार्थ को स्वीकार करने वाले जैन, बौद्ध, नैयायिक,
अथवा विनाश नहीं है अपितु जीव या आत्मा का अपने शुद्धि वैशेषिक और सांख्य-योग दर्शन हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक
स्वरूप में अपनी स्वतंत्र सत्ता रहित स्थित होना ही मोक्ष है । आत्मा यानि जीव अपने समस्त कर्म-कर्मफल, ज्ञान, मोक्षादि के
चौरासी लक्ष्य योनियों के भव भ्रमण की सांसारिक अवस्था में तो लिये पूर्ण रूपेण स्वतंत्र है । जीव स्वयं अपना स्वामी है । उसका
कर्म बंधन के कारण जीव वि-भाव रूप में रहता है किन्तु जब वह बंधन एवं मुक्ति किसी के रोष अथवा कृपा का परिणाम नहीं है।
पुरुषार्थ द्वारा अपने कर्मों का क्षय कर देता है तब जन्म-मरण के अपितु स्वयं के कर्तव्यों एवं कार्यों का परिणाम है । प्रभुत्त्व शक्ति
चक्र से मुक्त होकर वह स्व-भाव में स्थित हो जाता है और यही से युक्त जीव सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्र के द्वारा
उसकी चरम परिणति है । चार घाती कर्मों को नष्ट करके जब अर्हत् दशा को प्राप्त होता है अन्य शब्दों में मोक्ष आत्म विकास की पूर्ण अवस्था है । एक तब उसमें प्रभुत्त्व शक्ति का पूर्ण विकास होता है । फिर जब वह बार मुक्ति प्राप्त कर लेने पर यह आत्मा अनन्तकाल तक मुक्ति में शेष चार अर्धांति कर्मों को भी नष्ट करके सिद्ध मुक्त हो जाता है ही रहती है और फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आती है क्योंकि तब वह साक्षात् प्रभु ही हो जाता है और उसका पुनर्जन्म नहीं इस जीव को संसार में जन्म-मरण कराने एवं सुख दुःख देने के होता।
कारण जो कर्म होते हैं, मुक्ति की अवस्था में उनका सर्वथा अभाव जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा पर लगे हुए आठों प्रकार के
होता है । मुक्ति में इस जीव के साथ किसी प्रकार का शरीर नहीं रहता और न ही उसको किसी प्रकार का भौतिक सुख प्राप्त करने
की इच्छा ही रहती है । मुक्ति में यह आत्मा अनंत काल तक एक कई पुस्तकों के लेखक एवं अनुपम, अतीन्द्रिय, आध्यात्मिक सच्चे सुख का उपभोग करती सामाजिक क्षेत्र में भी अनुकरणीय रहती है। कार्य । १९५४ में राजस्थान
चूँकि मोक्ष आध्यात्मिक विकास की पूर्ण अवस्था है और प्रशासनिक सेवा में बीसवें स्थान
पूर्णता में कोई भेद नहीं होता है, अतः मोक्ष का भी कोई भेद नहीं पर रहे । डेढ़ दर्जन पुस्तकों का
है । मोक्ष या मुक्ति कोई स्थान लेखन विभिन्न जैन, सामाजिक व
विशेष भी नहीं है किन्तु आत्मा की सार्वजनिक संस्थाओं के संचालक
शुद्ध चिन्मय स्वरूप की प्राप्ति है रहे । १९७४ में जोधपुर जिला
जिसे वैदिक दर्शन में "सच्चिदानंद" महावीर निर्वाण समिति के मंत्री के रूप में प्रशंसनीय सेवाओं के
अवस्था कहा गया है | जैन दर्शन
के अनुसार कर्म बंधनों से मुक्त डॉ. अमृतलाल गांधी लिये राज्य स्तर पर ताम्रपत्र से
होने पर आत्मा हल्की होने के कारण एम.ए., पी.एच.डी., अलंकृत।
ऊपर की ओर उठती है और वह एल.एल.बी.
लोक के अग्रभाव में स्थित हो जाती
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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उपयोग उपभोग मध्य, अन्तर बड़ा विशेष । जयन्तसेन समझ लिया, फिर नहीं किंचित क्लेश ।।
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