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________________ : ५४७ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विवेश्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ जिस प्रकार जैन-दर्शन में शंका या सन्देह को सम्यकदर्शन का दोष माना गया है उसी प्रकार गीता में भी संशयात्मकता को दोष माना गया है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में फलाकांक्षा भी सम्यकदर्शन का अतिचार (दोष) मानी गई है उसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा को नैतिक जीवन का दोष ही माना गया है । गीता के अनुसार जो फलाकांक्षा से युक्त होकर श्रद्धा रखता है अथवा भक्ति करता है वह साधक निम्न श्रेणी का ही है। फलाकांक्षायुक्त श्रद्धा व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से आगे नहीं ले जाती है । गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो लोग विवेकज्ञान से रहित होकर तथा भोगों की प्राप्ति विषयक कामनाओं से युक्त हो मुझ परमात्मा को छोड़ अन्यान्य देवताओं की शरण ग्रहण करते हैं, मैं उन लोगों की श्रद्धा उनमें स्थिर कर देता हूँ और उस श्रद्धा से युक्त होकर वे उन देवताओं की आराधना के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं लेकिन उन अल्पबुद्धि लोगों का वह फल नाशवान होता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं लेकिन मुझ परमात्मा की भक्ति करने वाला मुझे ही प्राप्त होता है । गीता में श्रद्धा या भक्ति अपने आधारों की दृष्टि से चार प्रकार की मानी गई है १. ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् होने वाली श्रद्धा या भक्ति । परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के पश्चात् उनके प्रति जो निष्ठा होती है वह एक ज्ञानी की निष्ठा मानी गई है। २. जिज्ञासा की दृष्टि से परमात्मा पर श्रद्धा रखना। यह श्रद्धा या भक्ति का दूसरा रूप है । इसमें यद्यपि श्रद्धा तो होती है लेकिन वह पूर्णतया संशयरहित नहीं होती जबकि प्रथम स्थिति में होने वाली श्रद्धा पूर्णतया संशयरहित होती है । संशयरहित श्रद्धा तो साक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है । जिज्ञासा की अवस्था में संशय बना ही रहता है अतः श्रद्धा का यह स्तर प्रथम की अपेक्षा निम्न ही माना गया है। ३. तीसरे स्तर की श्रद्धा आर्त व्यक्ति की होती है। कठिनाई में फंसा हुआ व्यक्ति जब स्वयं अपने को उससे उबारने में असमर्थ पाता है और इसी दैन्य भाव से किसी उद्धारक के प्रति अपनी निष्ठा को स्थित करता है तो उसकी यह श्रद्धा या भक्ति एक दुःखी या आर्त व्यक्ति की भक्ति ही होती है। श्रद्धा या भक्ति का यह स्तर पूर्वोक्त दोनों स्तरों से निम्न होता है। ४. श्रद्धा या भक्ति का चौथा स्तर वह है जिसमें श्रद्धा का उदय स्वार्थ के वशीभत होकर होता है । यहाँ श्रद्धा कुछ पाने के लिए की जाती है, यह फलाकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली श्रद्धा अत्यन्त निम्न स्तर की मानी गई है । वस्तुतः इसे श्रद्धा केवल उपचार से ही कहा जाता है । अपनी मूल भावनाओं में तो यह एक व्यापार अथवा ईश्वर को ठगने का एक प्रयत्न है। ऐसी श्रद्धा या भक्ति नैतिक प्रगति में किसी भी अर्थ में सहायक नहीं हो सकती है। नैतिक दृष्टि से केवल ज्ञान के द्वारा अथवा जिज्ञासा के लिए की गई श्रद्धा का ही कोई अर्थ और मूल्य हो सकता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते समय हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गीता में ७८ गीता ७।२१-२३ ७७ गीता ४।४० ७६ गीता ७१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210709
Book TitleJain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
Publication Year1979
Total Pages30
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size3 MB
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