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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ ३. निविचिकित्सा निर्विचिकित्सा के दो अर्थ माने गये हैं (अ) मैं जो धर्म क्रिया या साधना कर रहा हूँ इसका फल मुझे मिलेगा या नहीं, मेरी यह साधना व्यर्थ तो नहीं चली जावेगी, ऐसी आशंका रखना 'विचिकित्सा' कहलाती है । इस प्रकार साधना अथवा नैतिक क्रिया के फल के प्रति शंकित बने रहना विचिकित्सा है। शंकित हृदय से साधना करने वाले साधक में स्थिरता और धैर्य का अभाव होता है और उसकी साधना सफल नहीं हो पाती है। अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैतिक आचरण का प्रारम्भ करें कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि नैतिक आचरण किया जावेगा तो निश्चित रूप से उसका फल प्राप्त होगा ही । इस प्रकार क्रिया के फल के प्रति सन्देह नहीं होना यही निर्विचिकित्सा है। (ब) कुछ जैनाचायों के अनुसार तपस्वी एवं संयमपरायण मुनियों के दुर्बल एवं जर्जर शरीर अथवा मलिन वेशभूषा को देखकर मन में ग्लानि लाना विचिकित्सा है। अतः साधक की वेशभूषा एवं शरीरादि बाह्य रूप पर ध्यान नहीं देकर उसके साधनात्मक गुणों पर विचार करना चाहिए । वेशभूषा एवं शरीर आदि बाह्य सौन्दर्य पर दृष्टि को केन्द्रित नहीं करके आत्म-सौन्दर्य की ओर उसे केन्द्रित करना यही सच्ची निर्विचिकित्सा है। आचार्य समन्तभ्रद का कथन है- शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है उसकी पवित्रता तो सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्ररूप रत्नत्रय के सदाचरण से ही होती है अतएव गुणीजनों के शरीर से पुणा न कर उनके गुणों से प्रेम करना निविधिकिरता है।" ४. अमूहष्टि मूढता का अर्थ है अज्ञान हेय और उपादेव, योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णायक क्षमता का अभाव ही अज्ञान है, मूढ़ता है। जैन साहित्य में विभिन्न प्रकार की मूढ़ताओं का वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है चिन्तन के विविध बिन्दु ५४२ १. देवमूढ़ता २. लोकमूढ़ता और ३ समयमूढ़ता। 1 Jain Education International (अ) देवमूढ़ता साधना का आदर्श कौन है ? उपास्य बनने की क्षमता किसमें है ? ऐसे निर्णायक ज्ञान का अभाव ही देवमूढ़ता है, जिसके कारण साधक अपने लिए गलत आदर्श और उपास्य का चयन कर लेता है। जिसमें उपास्य एवं साधना का आदर्श बनने की योग्यता नहीं है उसे उपास्य बना लेना देवमूढ़ता है। काम-क्रोधादि विकारों के पूर्ण विजेता, वीतराग एवं अविकल ज्ञान और दर्शन से युक्त परमात्मा को ही अपना उपास्य और आदर्श बनाना, यही देव के प्रति अमूढ़दृष्टि है । (ब) लोकमूढ़ता- लोक प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण यही लोक मूढ़ता है । आचार्य समन्तभद्र लोक मूढ़ता की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि 'नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि मानना, पत्थरों का ढेर कर उससे मुक्ति समझना अथवा पर्वत से गिरकर या अग्नि में जलकर प्राण विसर्जन करना आदि लोकमूढ़ताएं हैं। ( स ) समयमूढ़ता -- समय का अर्थ सिद्धान्त या शास्त्र भी माना गया है । इस अर्थ में सैद्धान्तिक ज्ञान या शास्त्रीय ज्ञान का अभाव समयमूढ़ता है। ६६ रत्नकरण्ड श्रावकाचार १३ ६७ रत्नकरण्ड श्रावकाचार १४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210709
Book TitleJain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
Publication Year1979
Total Pages30
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size3 MB
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