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जैन दर्शन में मानववादी चिन्तन ३२३
है । इस दर्शन में मानवमात्र को कर्त्तव्यपरायणता का उपदेश दिया गया है। मानव का इहलौकिक विकास करना ही समाज व राष्ट्र के लिए हितकर है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण, जड़वाद, ज्ञान की महत्ता, रत्न त्रय, सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था, परमाणुवाद, पंच महाव्रत व सदाचार आदि मानवोपयोगी मान्यताओं का अध्ययन प्रस्तुत करता है ।
(क) प्रत्यक्ष प्रमाण
मानव को बिना किसी सहायता से प्राप्त होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। इसके दो भेद हैं- मतिज्ञान व श्रुतज्ञान । दृश्य-वस्तु का सम्पूर्ण बोध ही मतिज्ञान है और आगमों के आप्त-वचनों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । मतिज्ञान का प्रत्यक्ष चार प्रकार से होता है - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ।
(ख) जड़वाद
जैनदर्शन में जड़वाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह भौतिकवादी चिन्तना का आधार स्तम्भ है । इसके पाँच भेद हैं- पुद्गल, आकाश, काल, धर्म व अधर्म ।
(ग) ज्ञान की महत्ता
अज्ञान ही समस्त कषायों का कारण है, जिससे मन की बगिया में क्रोध, मान, माया व लोभ की दुर्गन्ध उमड़ती है । इस अज्ञान की दुर्गन्ध का नाश ज्ञान की खुशबू से ही सम्भव है । इस समस्या के निराकरण के लिए ही रत्नत्रय की सृष्टि हुई ।
(घ) रत्नत्रय
मानव को अज्ञान से ज्ञान की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना चाहिए। जिससे वह दु:खों से मुक्त होकर अमोघ आनन्द का उपभोग कर सके । इसके लिए तीन रत्नों सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्र की आवश्यकता प्रतीत हुई ।
(ङ) पंच-महायत
मानव की चारित्रिक शुद्धि के लिए पाँच महाव्रतों की आवश्यकता पर बल प्रदान किया गया है। वे निम्न हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ।
अहिंसा
अहिंसा जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। इसका तात्पर्य है मन, वचन, कर्म से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना । अहिंसा मानव की आत्म-शक्ति का प्रमाण है जबकि हिंसा शारीरिक शक्ति का ।
सत्य
सत्य वचन से मनुष्य को लोभ, भय व क्रोध का डर नहीं रहता है । अतः मानव को सत्य व हितकारी बों का प्रयोग करना चाहिए।
अस्तेय
धन मानव की बाह्य-सम्पदा है । अतः धन की चोरी जीवन की चोरी के समान है । इसलिए मनुष्य मात्र को किसी प्रकार का चौर्य-कर्म नहीं करना चाहिए। जैन दर्शन के अस्तेयवाद के कारण ही स्वच्छ पूँजीवाद को प्रबल प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।
ब्रह्मचर्य
मानव को सभी प्रकार की वासनाओं का परित्याग करना चाहिए। अतः मानव को मन, वचन और कर्म से कामनाओं का त्याग करना चाहिए। यह सिद्धान्त स्वस्थ संयम का आदेश प्रदान करता है ।
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