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________________ १३८ मान्य नहीं है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं है, उनका कथन है कि यदि शब्द का अपने अर्थ के साथ में कोई सम्बन्ध ही नहीं माना जायेगा तो समस्त भाषा व्यवहार की प्रामाणिकता ही समाप्त हो जाएगी और पारस्परिक अभिव्यक्ति का कोई साधन ही नहीं रहेगा। इसीलिए जैन दार्शनिकों ने शब्द और अर्थ में सापेक्ष एवं सीमित वाच्य वाचक सम्बन्ध माना है। शब्द अपने विषय का वाचक तो होता है, किन्तु उसकी समस्त विशेषताओं का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में समर्थ नहीं है। शब्दों में अर्थ (विषय) की अभिव्यक्ति की सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष ही है, असीमित या पूर्ण और निरपेक्ष नहीं। “प्रेम” शब्द प्रेम नामक भावना को अभिव्यक्ति तो देता है, किन्तु उसमें प्रेम की अनुभूति की सभी गहराइयां समाविष्ट नहीं हैं। प्रेम के विविध रूप हैं। प्रेम अनुभूति की प्रगाड़ता के अनेक स्तर हैं। अकेला प्रेम शब्द उन सबका वाचक तो नहीं हो सकता। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से, एक पुत्र अपनी माता से, एक भाई अपने भाई से, एक मित्र अपने मित्र से "मैं तुमसे प्रेम करता हूँ" इस पदावली का कथन करते हैं, किन्तु क्या उन सभी व्यक्तियों के संदर्भ में इस पदावली का एक ही अर्थ होगा ? वे सब समान पदावली का उपयोग करते हुए भी जिस भाव प्रवणता की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, वह भिन्न-भिन्न ही है। दो भिन्न संदर्भों में और दो भिन्न व्यक्तियों के लिए एक ही संदर्भ में एक शब्द का एक ही अर्थ नहीं हो सकता है। मात्र यही नहीं, एक ही पदावली के संदर्भ में वक्ता और श्रोता दोनों की भाव-प्रवणता और अर्थ ग्राहकता भिन्न-भिन्न भी हो सकती है | अर्थ बोध न केवल शब्द-सामर्थ्य पर निर्भर है, अपितु श्रोता की योग्यता पर भी निर्भर है वस्तुतः अर्थबोध के लिए पहले शब्द और उसके अर्थ (विषय) में एक संबंध जोड़ लिया जाता है। बालक को जब भाषा सिखाई जाती है तो शब्द के उच्चारण के साथ उसे वस्तु को दिखाते हैं। धीरे-धीरे बालक उनमें सम्बन्ध जोड़ लेता है और जब भी उस शब्द को सुनता है या पढ़ता है तो उसे उस अर्थ (विषय) का बोध हो जाता है, अतः अपने विषय का अर्थ बोध करा देने की शक्ति भी मात्र शब्द में नहीं, अपितु श्रोता या पाठक के पूर्व संस्कारों में भी रही हुई है अर्थात् वह श्रोता या पाठक की योग्यता पर भी निर्भर है। यही कारण है कि अनसीखी भाषा के शब्द हमें कोई अर्थ बोध नहीं दे पाते हैं। इसीलिए जैन दार्शनिक मीमांसा दर्शन के शब्द में स्वतः अर्थबोध देने की सामर्थ्य का खण्डन करते हैं। अनेक प्रसंगों में वक्ता का आशय कुछ और होता है और श्रोता उसे कुछ और समझ लेता है, अतः यह मानना होगा कि शब्द और अर्थ में वाचक- वाच्य सम्बन्ध होते हुए भी वह सम्बन्ध श्रोता या पाठक सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं अन्यथा दो व्यक्तियों के द्वारा एक ही पदावली का भिन्न-भिन्न रूप में अर्थ ग्रहण करना कभी संभव ही नहीं होता। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ दूसरी बात यह है कि अपने विषय का वाचक होने की शक्ति भी सीमित ही है। शब्द शक्ति की सीमितता का कारण यह है कि अनुभूतियों की एवं भावनाओं की जितनी विविधताएं हैं, उतने शब्द नहीं हैं। अपने वाच्य विषयों की अपेक्षा शब्द संख्या और शब्द शक्ति Jain Education International दोनों ही सीमित हैं। उदाहरण के लिए मीठा शब्द को लीजिए। हम कहते हैं गन्ना मीठा है, गुड़ मोठा है, आम मीठा है, रसगुल्ला मोठा है, तरबूज मीठा है आदि-आदि। यहां सभी के मीठेपन की अनुभूति के लिए एक ही शब्द "मीठा" प्रयोग कर रहे हैं, किन्तु हम यह बहुत ही स्पष्ट रूप से जानते हैं कि सबके मीठेपन का स्वाद एक समान नहीं है। तरबूज मीठा है और आम मीठा है, इन दोनों कथनों में "मीठा " नामक गुण एक ही प्रकार की अनुभूति का द्योतक नहीं है। यद्यपि पशुओं के ध्वनि संकेत और शारीरिक संकेत की अपेक्षा मनुष्य के शब्द-संकेतों में भावाभिव्यक्ति एवं विषयाभिव्यक्ति की सामर्थ्य काफी व्यापक हैं, किन्तु उसकी भी अपनी सीमाएं हैं। भाषा की और शब्द संकेत की इन सीमाओं पर दृष्टिपात करना अति आवश्यक है। क्योंकि विश्व में वस्तुओं, तथ्यों एवं भावनाओं की जो अनन्तता है उसकी अपेक्षा हमारा शब्द भण्डार अत्यन्त सीमित हैं। एक "लाल" शब्द को ही लीजिए। वह लाल नामक रंग का वाचक है, किन्तु लालिमा की अनेक कोटियां हैं, अनेक अंश (डिग्रीज) है, अनेक संयोग (कोम्बिनेशन) हैं। क्या एक ही "लाल" शब्द भिन्न प्रकार की लालिमाओं का वाचक हो सकता है। एक और उदाहरण लीजिए एक व्यक्ति जिसने गुड़ के स्वाद का अनुभव किया है, उस व्यक्ति से जिसने कभी गुड़ के स्वाद का अनुभव नहीं किया हैं, जब यह कहता है कि गुड़ मीठा होता है तो क्या श्रोता उससे मीठेपन की उसी अनुभूति को ग्रहण करेगा जिसे वक्ता ने अभिव्यक्त किया है। गुड़ की मिठास की एक अपनी विशिष्टता है उस विशिष्टता का ग्रहण किसी दूसरे व्यक्ति को तब तक ठीक वैसा ही नहीं हो सकता है, जब तक कि उसने स्वयं गुड़ के स्वाद की अनुभूति नहीं की हो। क्यों कि शब्द सामान्य होता है, सत्ता विशेष होती है। सामान्य विशेष का संकेतक हो सकता है, लेकिन उसका समग्र निर्वाचन नहीं कर सकता है। शब्द अपने अर्थ (विषय) को मात्र सूचित करता है, शब्द और उसके विषय में तद्रूपता नहीं है, शब्द को अर्थ (मिनिंग) दिया जाता है। इसीलिए बौद्धों ने शब्द को विकल्पयोनि (विकल्पयोनयः शब्दाः न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ५३७) कहा है। शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक होते हुए भी उसमें और उसके विषय में कोई समानता नहीं है। यहां तक कि उसे अपने विषय का सम्पूर्ण एवं यथार्थ चित्र नहीं कहा जा सकता। यद्यपि शब्द में श्रोता की चेतना में शब्द और अर्थ के पूर्व संयोजन के आधार पर अपने अर्थ (विषय) का चित्र उपस्थित करने की सामर्थ्य तो होती है, किन्तु यह सामर्थ्य भी श्रोता सापेक्ष है। सत्ता कितनी वाच्य कितनी अवाच्य ? इस प्रकार भाषा या शब्द संकेत अपने विषयों के अपने अर्थों के संकेतक तो अवश्य हैं, किन्तु उनकी अपनी सीमाएं भी है। इसीलिए सत्ता या वस्तु तत्त्व किसी सीमा तक वाच्य होते हुए भी अवाच्य बना रहता है। वस्तुतः जब जीवन की सामान्य अनुभूतियों और भावनाओं को शब्दों एवं भाषा के द्वारा पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.210702
Book TitleJain Darshan me Pudgal aur Parmanu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Six Substances
File Size2 MB
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