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________________ पुद्गल जैनदर्शन में होना या न होना, २. 'आदि' पद से तीन आदि अंश लिए जाय या नहीं, और ३ बन्धविधान केवल सदृश अवयवों के लिए माना जाय अथवा नहीं। इस सम्बन्ध में पंडित जी आगे लिखते है १. तत्त्वार्थभाष्य और सिद्धसेनगणि की उसकी वृत्ति के अनुसार दोनों परमाणु जब जघन्य गुणवाले हों तभी उनके बन्ध का निषेध है, अर्थात् एक परमाणु जघन्यगुण हो और दूसरा जघन्यगुण न हो तभी उनका बन्ध होता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि सभी दिगम्बर व्याख्याओं के अनुसार एक जघन्यगुण परमाणु का दूसरे अजघन्यगुण के साथ भी बन्ध नहीं होता। परमाणु २. तत्त्वार्थभाष्य और उसकी वृत्ति के अनुसार सूत्र ३५ के 'आदि' पद का तीन आदि अंश अर्थ लिया जाता है। अतएव उसमें किसी एक परमाणु से दूसरे परमाणु में स्निग्धत्व या रूक्षत्व के अंश दो, तीन, चार तथा बढ़ते-बढ़ते संख्यात, असंख्यात अनन्त अधिक होने पर भी बन्ध माना जाता है; केवल एक अंश अधिक होने पर ही बन्ध नहीं माना जाता है परन्तु सभी दिगम्बर व्याख्याओं के अनुसार केवल दो अंश अधिक होने पर ही बन्ध माना जाता है, अर्थात् एक अंश की तरह तीन, चार संख्यात, असंख्यात, अनन्त अंश अधिक होने पर बन्ध नहीं माना जाता। ३. भाष्य और वृत्ति के अनुसार दो, तीन आदि अंशों के अधिक होने पर बन्ध का विधान सदृश अवयवों पर ही लागू होता है, विसदृश पर नहीं परन्तु दिगम्बर व्याख्याओं में वह विधान सदृश की भाँति विसदृश परमाणुओं के बन्ध पर भी लागू होता है। इस अर्थभेद के कारण दोनों परम्पराओं में बन्ध विषयक जो विधि-निषेध फलित होता है वह इस प्रकार है भाष्यवृत्त्यनुसार गुण- अंश १. २. जघन्य एकाधिक ३. जघन्य प्राधिक जघन्य + जघन्य + ४. जघन्यत्र्यादि अधिक है ५. जघन्येतर• सम जघन्येतर ६. जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर ७. जघन्येतर इयधिक जघन्येतर + ८. जघन्येतर ज्यादि अधिक जघन्येतर सदृश नहीं नहीं Jain Education International नहीं नहीं the सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर व्याख्या प्रन्यां के अनुसार गुण- अंश १. जघन्य + जघन्य २. जघन्य एकाधिक ३. जघन्य + द्व्यधिक सदृश नहीं नहीं नहीं विसदृश नहीं विसदृश नहीं नहीं नहीं और परमाणु ४. जघन्य + त्र्यादि अधिक ५. ६. ७. ८. जघन्येतर+सम जघन्येतर जघन्येतर एकाधिक जघन्येतर जघन्येतरद्वयाधिक जघन्येतर नहीं नहीं १३३ For Private & Personal Use Only नहीं नहीं नहीं है नहीं नहीं है जघन्यतेरत्र्यादि अधिक जघन्येतर नहीं । इस बन्ध- विधान को स्पष्ट करते हुए अपनी तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या में पं. सुखलालजी लिखते है कि स्निग्धत्व और रुक्षत्व दोनों स्पर्श-विशेष है। ये अपनी-अपनी जाति की अपेक्षा एक-एक रूप होने पर भी परिणमन की तरतमता के कारण अनेक प्रकार के होते हैं। तरतमता यहाँ तक होती है कि निकृष्ट स्निग्धत्व और निकृष्ट रूक्षत्व तथा उत्कृष्ट स्निग्धत्व और उत्कृष्ट रूक्षत्व के बीच अनन्तानन्त अंशों का अन्तर रहता है, जैसे बकरी और ऊँटनी के दूध के स्निग्धत्व में स्निग्धत्व दोनों में ही होता है परन्तु एक में अत्यल्प होता है और दूसरे में अत्यधिक तरतमतावाले स्निग्धत्व और रूक्षत्व परिणामों में जो परिणाम सबसे निकृष्ट अर्थात् अविभाज्य हो उसे जघन्य अंश कहते हैं। जघन्य को छोड़कर शेष सभी जघन्येतर कहे जाते हैं। जघन्येतर में मध्यम और उत्कृष्ट संख्या आ जाती है सबसे अधिक स्निग्धत्व परिणाम उत्कृष्ट है और जघन्य तथा उत्कृष्ट के बीच के सभी परिणाम मध्यम हैं। जघन्य स्निग्धत्व की अपेक्षा उत्कृष्ट स्निग्धत्व अनन्तानन्त गुना अधिक होने से यदि जघन्य स्निग्धत्व को एक अंश कहा जाय तो उत्कृष्ट स्निग्धत्व को अनन्तानन्त अंशपरिमित मानना चाहिए। दो, तीन यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्त से एक कम उत्कृष्ट तक के सभी अंश मध्यम हैं। यहाँ सदृश का अर्थ है स्निग्ध का स्निग्ध के साथ या रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध होना और विसदृश का अर्थ है स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होना। एक अंश जघन्य है और उससे एक अधिक अर्थात् दो अंश एकाधिक हैं। दो अंश अधिक हों तब द्व्यधिक और तीन अंश अधिक हों तब प्रयाधिक। इसी तरह चार अंश अधिक होने पर चतुरधिक यावत् अनन्तानन्त-अधिक कहलाता है। सम अर्थात् दोनों ओर अंशों की संख्या समान हो तब वह सम है। दो अंश जघन्येतर का सम जघन्येतर दो अंश हैं, दो अंश जघन्येतर का एकाधिक जघन्येतर तीन अंश हैं, दो अंश जघन्येतर का द्वयधिक जघन्येतर चार अंश हैं, दो अंश जघन्येतर का प्रयाधिक जघन्येतर पाँच अंश हैं और चतुरधिक जधन्येतर छ: अंश हैं। इसी प्रकार तीन आदि से अनन्तांश जघन्येतर तक के सम, एकाधिक, इयधिक और त्र्यादि जघन्येतर होते हैं। यहाँ यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि समांश स्थल में सदृश बन्ध तो होता ही नहीं, विसदृश होता है, जैसे दो अंश स्निग्ध का दो अंश रूक्ष के साथ या तीन अंश स्निग्ध का तीन अंश रूक्ष के साथ। ऐसे स्थल में कोई एक सम दूसरे सम को अपने रूप में परिणत कर लेता है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार कभी स्निग्धत्व रूक्षत्व को स्निग्धत्व में बदल देता है और कभी रूक्षत्व स्निग्धत्व को रूक्षत्व में बदल देता है । परन्तु अधिकाशं स्थल में अधिकांश ही www.jainelibrary.org.
SR No.210702
Book TitleJain Darshan me Pudgal aur Parmanu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Six Substances
File Size2 MB
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