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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
होती । गीता भी स्वीकार करती है कि 'कि कर्तव्य' का निश्चय कर पाना अथवा कर्म की शुभाशुभता का निरपेक्ष रूप से निश्चय कर पाना अत्यन्त कठिन है।
आचरण के जिन तथ्यों को हम शुभ या अशुभ अथवा पुण्य या पाप के नाम से सम्बोधित करते हैं, उनके सन्दर्भ में साधारण व्यक्ति द्वारा दिए गए यह निर्णय सापेक्षिक ही हो सकते हैं । हमारे निर्णयों के देने में कम से कम कर्ता के प्रयोजन एवं कर्म के परिणाम के पक्ष तो उपस्थित होते ही हैं। दूसरे व्यक्ति के आचार के सम्बन्ध में दिये गये हमारे अधिकांश निर्णय परिणाम सापेक्ष होते हैं जब कि स्वयं के आचरण के बारे में लिए जाने वाले निर्णयों में हम प्रयोजन सापेक्ष होते हैं । कोई भी व्यक्ति पूर्णतया न तो यह जान सकता है कि कर्ता का प्रयोजन क्या था, न स्वयं के कर्मों का दूसरों पर क्या परिणाम हुआ, इसका पूरा ज्ञान रख सकता है। अतः जन साधारण के नैतिक निर्णय हमेशा सापेक्ष हो सकते हैं ।
दूसरी और हमें जिस जगत में नैतिक आचरण करना है वह सारा जगत ही आपेक्षिकताओं से युक्त है क्योंकि उसकी प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । अतः इस सापेक्षिकता के जगत में नैतिक आचरण भी निरपेक्ष नहीं हो सकता । सभी कर्म देश-काल अथवा व्यक्ति से सम्बन्धित होते हैं और इसलिए वे निरपेक्ष नहीं हो सकते । बाह्य जागतिक परिस्थितियों और कर्म के पीछे रहा हुआ वैयक्तिक अभिप्रयोजन (Intention ) भी आचरण को नैतिक विचारणा की दृष्टि से सापेक्ष बना देते हैं । जैनदर्शन दार्शनिक दृष्टि से वस्तु को अनन्त धर्मात्मकता को स्वीकार करता है । आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में आदीपव्योम सभी वस्तुएँ स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित हैं अर्थात् सभी जागतिक तथ्य अनेक गुण-धर्मों से युक्त है । नैतिक कर्म भी एक जागतिक तथ्य है वह भी अनेक पक्षों से युक्त है अतः उस पर किसी निरपेक्ष अथवा ऐकान्तिक दृष्टिकोण से विचार नहीं किया जा सकता। उसके देश-कालगत अनेक पक्षों की बिना समीक्षा किये उन्हें नैतिक अथवा अनैतिक नहीं कहा जा सकता । कोई भी कर्म देशकाल भाव आदि तथ्यों से भिन्न एकान्त रूप में न तो नैतिक कहा जा सकता है और न अनैतिक । पाश्चात्य दार्शनिक ब्र ेडले इसी विचार के समर्थक हैं । वे लिखते हैं 'प्रत्येक कमं के अनेक पक्ष होते हैं, अनेक रूपों से सम्बन्धित होता है, उस पर विचार करने के अनेक दृष्टिकोण होते हैं और वह अनेक गुणों से युक्त होता है, सदैव अनेक ऐसे सिद्धान्त हो सकते है जिनके अन्तर्गत उस पर विचार किया जा सकता है और इसलिए उसे ( एकांत रूप में) नैतिक अथवा अनैतिक मानने में कुछ कम कठिनाई नहीं होती । एक कर्म एक दशा में नैतिक हो सकता है और दूसरी दशा में अनैतिक हो सकता है, वही कर्म एक व्यक्ति के लिए नैतिक हो सकता है दूसरे व्यक्ति के लिए अनैतिक हो सकता है। जैन विचारणा कर्मों की नैतिक दृष्टि से इस सापेक्षता को स्वीकार करती है । प्राचीनतम जैन आगम आचारांगसूत्र में कहा है कि "जो आस्रव या बन्ध के कारण हैं वे सभी
मोक्ष के हेतु हो जाते हैं और जो मोक्ष के हेतु हैं वे सभी बन्ध कोई भी अनैतिक कर्म विशेष स्थिति में नैतिक बन जाता है स्थिति में अनैतिक बन सकता है । वस्तुतः समाचारण या क्रिया है और न अनैतिक वरन् परिस्थितियाँ एवं व्यक्ति का प्रयोजन उसे नैतिक अथवा अनैतिक बना
के हेतु हो जाते हैं ।"२ इस प्रकार और कोई भी नंतिक कर्म विशेष अपने आप में न तो नैतिक होती
१
२
गहना कर्मणो गति
(क) जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते आसवा ।
(ख) य एवास्रवा कर्मबन्ध स्थानानि त एव परिस्रवा कर्मनिर्जरा स्थानानि ।
- गीता ४।१७
- आचारांग १-४-२-१३०
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३ यस्मिन् देशे काले यो धर्मों भवति स निमित्तान्तरेषु अधर्मो भवत्येव ॥
-आचार्य शीलांक टीका
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-उद्धृत अमर भारती (मई १९६४) पृ० १५
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