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का निर्माण भी इसके द्वारा हआ करता है। गौत्र कर्म!
कर्म परमाणुओं का वह समूह जिनके द्वारा यह निर्धारित होता है कि जीव किस गोत्र, कुटुम्ब वंश, कुल जाति तथा देश आदिमें जन्म ले गोत्र कर्म कहलाता है। ये कर्म परमाणु जीव में अपने जन्म की स्थिति के प्रति मान स्वाभिमान तथा उँच हीन भाव आदि का बोध कराते
आयुकर्म:
इस कर्म के द्वारा जीव की आयु निश्चित हुआ करती है। स्वर्ग-मनुष्य-तिर्थञ्च नरक गति में कौन सी गति जीव को प्राप्त हो यह इसी कर्म पर निर्भर करता है। वेदनीय कर्म
इस कर्म के द्वारा जीव को सुख दु:ख की वेदना का अनुभव हुआ करता है।
उपरोक्त कर्मो के भेद प्रभेदो से यह स्पष्ट है कि घाति-अघाति कर्म आत्मा के स्वभाव को आच्छादित कर जीव में ज्ञान, दर्शन व सामर्थ्य शक्ती को क्षीर्ण करते है तथा ये कर्म जीव पर भिन्न-भिन्न प्रकार से अपना प्रभाव डालते है जिसके फलस्वरुप जीव सुख-दु:ख के घेरे में घिरता हुआ स्वतन्त्रता के मार्ग से च्युत होकर पराधीनता का मार्ग अपना लेता है।
अर्पकित अष्ट कर्मो के अतिरिक्त 'नो कर्म' का भी उल्लेख जैनागम में मिलता है। कर्म के उदय से होने वाला वह औदारिक, शरीरादि रुप पुद्गल परमाणु जो आत्मा के सुख-दुःख में सहायक होता है वस्तुत: 'नो कर्म' कहलाता है। ये दो प्रकार के होते है एक 'बद्ध नो कर्म और दुसरा 'अबद्ध नो कर्म'। शरीर आत्मा में बँधा होने के कारण बद्ध नो कर्म है। आत्मा का एक शरीर को छोडते समय और दूसरे शरीर में प्रवेश करते समय मध्य के समय में भी जिसे विग्रह-गति कहा जाता है, तैजस ओर रामणि शरीर आत्मा के साथ उपस्थित रहते हैं। अस्तु शरीर संसारी आत्मा के साथ प्रत्येक क्षण बद्ध है। अबद्ध नो कर्म वे कर्म है जो शरीर की तरह प्रत्येक समय आत्मा के साथ सम्यक्त नहीं रहते। उनमें साथ रहने का कोई भी निश्चय नहीं होता। उदाहरणार्थ धन, मकान, परिवार, आदि का साथ-साथ रहना संदिग्ध ही है। ये नो कर्म भी संसारी जीव पर अन्य कर्मों की भाँति अपना पभाव डाला करते है।
संसारी प्राणी कर्मों के स्वरुप-शक्ति की महिमा से जब परिचित होता है तो निश्चय ही वह इन कर्म-झमेलों से मुक्तिपर्य अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध अर्थात प्रशस्त्र शुभ की ओर अपना उपयोग लगाता है। वास्तव में कर्म सिद्धान्तों के द्वारा संसारी जीव में वीतराग-वितानता की प्राप्ति के शुभभाव जाग्रत होते है। यह वीतरागता सम्यक दर्शन-ज्ञान चारित्र रुपी रत्नलय थी समन्वित साधनासे उपलब्ध होती है। वस्तुत श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र का मिलाजुला पथ जीव को मुक्ति या सिद्धि तक ले जाता है। क्यों कि ज्ञान से भावों (पदार्थों का सम्यक बोध), दर्शन से श्रद्धा तथा चारित्र से कर्मों का निरोध होता है। जब जीव सम्यक दर्शन-ज्ञान चारित्र से युक्त होता है तब आश्रव से रहित होता है जिसके कारण सर्वप्रथम नवीन कर्म कटते-छुटते है फिर पूर्व बद्ध संचित कर्म क्षय होने लगते है। कालान्तर में मोहनीय कर्म सम्पूर्ण रुप से नष्ट हो जाते है तदनन्तर अन्तराय, ज्ञानावरणीय, और दर्शनावरणीय तीन कर्म भी एक साथ पूर्व रुपे नष्ट हो जाते है इसके उपरान्त शेष चार अधाति कर्म भी नष्ट हो जाते है। इस
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उस भूमि को नमन करो जिस स्थान पर गर्व का खंडन हुआ हो, ज्ञान की ज्योति प्रगटी हो, वह स्थल ही तो सचा तीर्थ है।
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