________________ जैन दर्शन में आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण 121 ठहराया जा सके। सकती। इसी वैयक्तिकता से राग और आसक्ति का जन्म होता है, जो 4. आत्मा की सर्वव्यापकता का सिद्धान्त अनेकात्मवाद के तृष्णा का ही एक रूप है, 'मैं' भी बन्धन ही है। साथ कथमपि संगत नहीं हो सकता। साथ ही अनेकात्मवाद के अभाव में नैतिक जीवन की सुसंगत व्याख्या भी सम्भव नहीं। जैन दर्शन का निष्कर्ष जैन दर्शन ने इस समस्या का भी अनेकान्तदृष्टि से सुन्दर आत्माएँ अनेक हैं हल प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार आत्मा एक भी है और अनेक भी। आत्मा एक है या अनेक-यह दार्शनिक दृष्टि से विवाद का समवायांग और स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि आत्मा एक है।२८ विषय रहा है। जैन दर्शन के अनुसार आत्माएँ अनेक हैं और प्रत्येक अन्यत्र उसे अनेक भी कहा गया है।२९ टीकाकारों ने इसका समाधान शरीर की आत्मा भिन्न है। यदि आत्मा को एक माना जाता है तो नैतिक इस प्रकार किया कि आत्मा द्रव्यापेक्षा से एक है और पर्यायापेक्षा से दृष्टि से निम्न अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं अनेक, जैसे सिन्धु का जल न एक है और न अनेक। वह जल-राशि की दृष्टि से एक है और जल-बिन्दुओं की दृष्टि से अनेक भी। समस्त एकात्मवाद की समीक्षा जल-बिन्दु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए उस जल-राशि से अभिन्न 1. आत्मा को एक मानने पर सभी जीवों की मुक्ति और ही हैं। उसी प्रकार अनन्त चेतन आत्माएँ अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते बन्धन एक साथ होंगे। इतना ही नहीं सभी शरीरधारियों के नैतिक हुए भी अपनी चेतना स्वभाव के कारण एक चेतन आत्मद्रव्य ही हैं।३० विकास एवं पतन की विभिन्न अवस्थाएँ भी युगपद् होंगी। लेकिन भगवान् महावीर ने इस प्रश्न का समाधान बड़े सुन्दर ढंग से ऐसा तो दिखता नहीं। सब प्राणियों का आध्यात्मिक एवं नैतिक टीकाकारों के पहले ही कर दिया था। वे सोमिल नामक ब्राह्मण को विकास का स्तर अलग-अलग है। यह भी माना जाता है कि अनेक अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहते हैं-“हे सोमिल ! द्रव्यदृष्टि से मैं व्यक्ति मुक्त हो चुके हैं और अनेक अभी बंधन में हैं। अत: आत्माएँ एक हूँ, ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों की प्रधानता से मैं दो हूँ। कभी एक नहीं, अनेक हैं। न्यूनाधिक नहीं होने वाले आत्म-प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, 2. आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिक नैतिक प्रयासों का अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। तीनों कालों में बदलते रहने वाले उपयोग मूल्य समाप्त हो जायेगा। यदि आत्मा एक ही है तो व्यक्तिगत प्रयासों स्वभाव की दृष्टि से मैं अनेक हूँ।"३१ एवं क्रियाओं से न तो उसकी मुक्ति सम्भव होगी न वह बन्धन में ही इस प्रकार भगवान महावीर जहाँ एक ओर द्रव्यदृष्टि (Subआयेगा। stantial view) से आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन करते हैं, वहीं 3. आत्मा के एक मानने पर नैतिक उत्तरदायित्व तथा दूसरी ओर पर्यायार्थिक-दृष्टि से एक ही जीवात्मा में चेतन पर्यायों के तज्जनित पुरस्कार और दण्ड की व्यवस्था का भी कोई अर्थ नहीं रह प्रवाह के रूप से अनेक व्यक्तियों की संकल्पना को भी स्वीकार कर जायेगा। सारांश में आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिकता समाप्त हो शंकर के अद्वैतवाद और बौद्धों के क्षणिक आत्मवाद की खाई को जाती है और वैयक्तिकता के अभाव में नैतिक विकास, नैतिक उत्तरदायित्व पाटने की कोशिश करते हैं। और पुरुषार्थ आदि नैतिक प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जैन विचारक आत्माओं में गुणात्मक अन्तर नहीं मानते हैं। इसीलिये विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सुख-दुःख जन्म- लेकिन विचार की दिशा में केवल सामान्य दृष्टि से काम नहीं चलता, मरण, बन्धन-मुक्ति आदि के सन्तोषप्रद समाधान के लिए अनेक विशेष दृष्टि का भी अपना स्थान है। सामान्य और विशेष के रूप में आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना आवश्यक है।२६ सांख्यकारिका में विचार की दो दृष्टियाँ हैं और दोनों का अपना महत्त्व है। महासागर की भी जन्म-मरण, इन्द्रियों की विभिन्नता, प्रत्येक की अलग-अलग प्रवृत्ति जल-राशि सामान्य दृष्टि से एक है, लेकन विशेष दृष्टि से नही, जलऔर स्वभाव तथा नैतिक विकास की विभिन्नता के आधार पर आत्मा राशि अनेक जल-बिन्दुओं का समूह प्रतीत होती है। यही बात आत्मा की अनेकता सिद्ध की गयी है।२७ के विषय में है। चेतना पर्यायों की विशेष दृष्टि से आत्मा अनेक हैं और चेतना द्रव्य की दृष्टि से आत्मा एक हैं जैन दर्शन के अनुसार आत्म अनेकात्मवाद की नैतिक कठिनाई द्रव्य एक है, लेकिन उसमें अनन्त वैयक्तिक आत्माओं की सत्ता है। अनेकात्मवाद नैतिक जीवन के लिए वैयक्तिकता का प्रत्यय इतना ही नहीं, प्रत्येक वैयक्तिक आत्मा भी अपनी परिवर्तनशील तो प्रस्तुत कर देता है, तथापि अनेक आत्माएँ मानने पर भी कुछ चैतसिक अवस्थाओं के आधार पर स्वयं भी एक स्थिर इकाई न होकर नैतिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन नैतिक कठिनाइयों में प्रवाहशील इकाई है। जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा का चरित्र या प्रमुखतम यह है कि नैतिकता का समग्र प्रयास जिस अहं के विसर्जन व्यक्तित्व परिवर्तनशील है, वह देशकालगत परिस्थितियों में बदलता के लिए है उसी अहं (वैयक्तिकता) को ही यह आधारभूत बना देता है। रहता है, फिर भी वही रहता है। हमारे में भी अनेक व्यक्तित्व बनते और अनेकात्मवाद में वैयक्तिकता कभी भी पूर्णतया विसर्जित नहीं हो बिगड़ते रहते हैं फिर भी वे हमारे ही अंग हैं। इस आधार पर हम उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org