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________________ घड़े में पानी भरा है, पर उस जल में भी आकाश है। इस समूचे लोक के अधः, मध्य और ऊर्ध्व यह तीन वह आकाश ही अन्य वस्तुओं को अवकाश देता है / अत- विभाग होने का मध्य बिन्दु मेरु पर्वत के मूल में है। इस एव शक्कर के उदाहरण के अनुसार धर्म-अधर्म पुद्गल मध्यलोक के बीचोबीच जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप के भी आदि द्रव्य भी आकाश में अवकाश देने के कारण अव- मध्य में मेरु पर्वत है जिसका पाया 'जमीन में एक स्थित है। हजार योजन और ऊपर जमीन पर 66000 योजन ऊँचा इस षड्द्रव्यात्मक लोक का आकार 'सुप्रतिष्ठक है। जमीन के समतल भाग पर इसकी लम्बाई-चौड़ाई संस्थान' वाला है। जमीन पर एक सकोरा उलटा, उस चारों दिशाओं में दस हजार योजन की है / पर दूसरा सकोरा सीधा और उस पर तीसरा सकोरा मेरु पर्वत के पाये के एक हजार योजन में नौ सौ उलटा रखने से जो आकार बन जाता है वही लोक का योजन के नीचे अधोलोक प्रारम्भ हो जाता है और सातवें आकार होता है। लोक के इस आकार का कथन अन्य नरक तक का लोक 'अधोलोक' है। अधोलोक के ऊपर रूपक के द्वारा भी समझाया गया है। जैसे कि इस लोक 1800 योजन तक ‘मध्यलोक' है। मध्यलोक के ऊपर का आकार कटि-प्रदेश पर हाथ रखकर तथा पेरों को का सभी क्षेत्र मुक्ति स्थान पर्यन्त 'ऊर्ध्व लोक' है। इन पसार कर नृत्य करने वाले व्यक्ति के समान है। अतः तीनों लोकों में अधोलोक एवं ऊर्ध्वलोक इन दोनों की लोक को पुरुषाकार की उपमा से उपमित किया गया है। ऊँचाई, चौड़ाई से अधिक है तथा मध्यलोक में ऊँचाई प्रथम रूपक में औंधे सकोरे पर दूसरे सीधे और तीसरे की अपेक्षा लम्बाई-चौड़ाई अधिक है। क्योंकि मध्यलोक औंधे सकोरे के रखने से बनने वाली आकृति सुगमता से की ऊँचाई तो केवल 1800 योजन-प्रमाण और लम्बाईसमझ में आ जाती है और यह औंधे और फिर सीधे और चौड़ाई एक रजू प्रमाण है। फिर उलटे सकोरे के रखने से बनने वाले आकार से लोक के अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक के आकार का परि- सारपूर्ण शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ बोध भी सरलता से हो जाता है। प्रथम उलटे रखे हुये हम रहते हैं वह लोक है। लोक का सदभाव अलोक सकोरे के समान अधोलोक है,ऊपर सकरा और नीचे चौड़ा के अभाव में नहीं हो सकता। अतः अलोक भी है। लोक दूसरे सीधे रखे हुये सकोरे के तल भाग के सदृश मध्यलोक और अलोक का विभाजन नवीन नहीं है, शाश्वत है, और उससे लेकर पाँचवें देवलोक तक का भाग नीचे नित्य है, ध्रव है और उनके विभाजन के जो तत्त्व हैं वे सकरा और ऊपर चौड़ा है तथा द्वितीय के ऊपर रखे गये शाश्वत हैं। यह एक ज्ञातव्य तथ्य है कि कृत्रिम पदार्थ तृतीय उलटे सकोरे के समान पाँचवें देवलोक से लेकर से शाश्वतिक वस्तु का विभाजन नहीं हो सकता। छहों सर्वार्थसिद्ध विमान तक का आकार है / द्रव्य शाश्वतिक है, अनादि निधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210669
Book TitleJain Darshan ke Aalok me Nayavad aur Dravyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherZ_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf
Publication Year1986
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Naya
File Size743 KB
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