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स्याद्वाद उसका वाचक है। वस्तुतः “अनेकान्त- उन्होंने “सप्तभंगी" नाम दिया है। और इसकी मार वाद" और "स्याद्वाद" में, यह सूक्ष्म अन्तर बनता परिभाषा, एक राय होकर इस प्रकार की हैही नहीं है। यह अन्तर तभी बन पाता है, जब हम "प्रश्नवशादेकत्र वस्तून्यविरोधेन विधि प्रतिषेध "अनेकान्त" के साथ "वाद" शब्द न जोडे । कल्पना "सप्तभंगी"। सप्तानां 'भंगाना' समा
हारः सप्तभंगी। -इतिवा। "प्रवचनसार" की मन्यता के अनुसार "स्या- हार द्वाद" वह सिद्धान्त है. जिसमें परस्पर विरुद्ध धर्मों जैन दार्शनिक मानते हैं कि किसी भी एक वस्त का समन्वय विभिन्न अपेक्षाओं के साथ मुख्यता में, सात प्रकार के ही संशय, प्रश्न उत्पन्न होते हैं । म और गौणता के आधार पर किया जाता है। जैसे क्योंकि, वस्तु में सात धर्मों की ही, प्रमाणों के अनु- Ike एक न्यायाधीश, अपनी सूक्ष्म विवेकिता के सार सिद्धि होती है । अतः इन धर्मों से सम्बन्धित
आधार पर निष्पक्ष निर्णय देने का महत्वपूर्ण कार्य प्रश्नों, जिज्ञासाओं के उत्पन्न होने पर इन प्रश्नों ए मा सम्पन्न करता है, उसी तरह विभिन्न विचारों में के समाधान हेतु सात प्रकार के ही उत्तर अपेक्षित |
समन्वय साधने के लिए, न्यायाधीश जैसा ही कार्य होते हैं । इन सात उत्तर वाक्यों को ही 'सप्तभंगी' "स्याद्वाद" निभाता है। इसी आधार पर स्यावाद के शब्द के द्वारा कहा गया है। किन्त इन सातों विशेषज्ञ विद्वान इस शब्द की परिभाषा इस प्रकार वाक्यों में अर्थात् प्रत्येक वाक्य में 'एव'-ही शब्द करते हैं-"अपने और दसरों के विचारों में, मतों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। और, में, और कार्यों में उनकी मूल-भावनाओं का सम- प्रत्येक वचन, कथन में, एक-'अपेक्षा' विशेष न्वय करना "स्याद्वाद" है। इस परिभाषा को निहित होने के कारण, उसके सूचक 'स्यात्' शब्द स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने सुन्दर शब्द का प्रयोग भी प्रत्येक वाक्य में अनिवार्यतः करना चित्र प्रस्तुत किया है
होगा । अन्यथा 'घट' का विवेचक वाक्य, 'पट' का
विवेचक भी हो सकता है, यह खतरा पैदा हो IKS एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्व मितरेण ।।
जायेगा। इन सात उत्तर वाक्यों अर्थात् सात अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।
भंगों के प्रकार निम्नलिखित होते हैंइस परिभाषा को अष्टसहस्रीकार ने इन
१. स्यादस्त्येव घटः, शब्दों में व्यक्त किया है-प्रत्यक्षादि प्रमाणा
२. स्यान्नास्त्येव घटः, विकद्धानेकात्मक वस्तु प्रतिपादकः श्रुतस्कन्धात्मको
३. स्यादस्ति-नास्त्येव घटः स्याद्वादः"।
४. स्यादवक्तव्य एव घटः ये परिभाषाएँ स्पष्ट करतो हैं कि "अनेकान्त- ५. स्यादस्त्यवक्तव्य एव घटः वाद" और "स्याद्वाद के शाब्दिक अर्थों का भेद, ६. स्यान्नास्त्यवक्तव्य एव घटः कोई अर्थ नहीं रखता । यही तथ्य इस बात से भी ७. स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य एव घट: स्पष्ट हो जाता है कि जैन दार्शनिकों ने इन दोनों इनमें से प्रथम वाक्य में 'घट' अपने द्रव्य-क्षेत्रशब्दों से अभिव्यक्त पदार्थ के स्वरूप विवेचन के काल-भाव की अपेक्षा से घट ही है। न कि 'पट' लिए जो एक शैली/पद्धति सुनिश्चित्त की है, उसे आदि अन्य कुछ। दूसरे वाक्य में, 'घट' पर-द्रव्य
१ प्रवचनसार २/७ २ आप्तमीमांसा १०४ ३ पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ।
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कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 0640 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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