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जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव
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है कि जब तक भीतरी चित्त मलिन है, तब तक बाह्य स्नान, ध्यानादि से कोई लाभ नहीं। उसी प्रसंग में आगे वे कहते हैं कि जैसे मलिन दर्पण में रूप नहीं दिखता, उसी प्रकार रागादिक से मलिन चित्त में शुद्ध आत्मस्वरूप का दर्शन पाना अत्यन्त दुर्लभ है । यथा-----
राएँ रंगिऐ हियवडए देउ ण दीसइ संतु। दप्पणि मइलए बिबु जिम एहउ जाणि णिमंतु ।।१२०।।
-परमात्मप्रकाश, पृ० १२१ मुनि रामसिंह ने चित्तशुद्धि का एकमात्र प्रमुख कारण चित्त में निरंजन को धारण करना ही बतलाया है। उन्होंने कहा :--
अभिंतर चित्त वि मइलियइँ बाहिरि काई सवेण । चित्ति णिरंजणु को बि धरि मुच्चाहि जेम मलेण ॥६॥
--पाहुडदोहा, पृ० १८ उक्त विचार-परम्परा से प्रभावित होकर कबीर ने भी आन्तरिक शुद्धि पर ही अधिक जोर दिया है। उन्होंने भी मुनि योगीन्दु के उक्त भावों को आदर्श मानकर चित्तशुद्धि का विवेचन करने हेतु आत्मा को दर्पण से उपमा दी है । दर्पण चैतन्य-आत्मा का प्रतीक है---
जो दरसन देख्या चहिऐ, तो वरपन मंजत रहिए।
जब दरपन लागे काई, तब दरसन किया न जाई॥ उनकी रचनाओं में यह चित्तशद्धि अत्यधिक मात्रा में परिलक्षित होती है। उन्होंने सर्वप्रथम आत्मतत्व को पहचानने का उपदेश दिया। उनके अनुसार यदि आत्मतत्व को नहीं पहचाना गया तो बाह्य स्नानादि क्रियाएँ व्यर्थ हैं। अपने सिद्धान्त के समर्थन में उन्होंने मेंढक का सुन्दर उदाहरण दिया है। वे कहते हैं, कि 'दादुर' तो सदैव गंगा में ही रहता है, किन्तु फिर भी उसे मुक्ति प्राप्त नहीं हो पाती। कबीर ने गंगा-स्नानादि को व्यर्थ की मूढ़ता बतलाकर आत्मारूपी रामनाम के स्मरण को विशेष महत्व दिया है
क्या है तेरे न्हाई धोई, आतमराम न चीन्हा सोई। क्या घर ऊपर मंजन कोये, भीतरी मैल अपारा ॥ राम नाम बिन नरक न छूट, जो धोवै सौ बारा । ज्यू दादुर सुरसरि जल भीतरि हरि बिन मुकति न होई ॥१५८।।
-कबीर ग्रन्थावली, पृ०३२२ मुनि रामसिंह ने बाहरी वेष-विन्यास की भी तीव्र भर्त्सना की है। ये ऐसे योगी की तीव्र आलोचना करते हैं, जिसने अपने सिर को तो मुड़ा लिया है, किन्तु चित्त विकारों से युक्त है। क्योंकि उनकी दृष्टि में तो चित्त मुण्डन ही संसार का खण्डन करने में श्रेष्ठ सहायक है। वे कहते हैं
मुंडिय मुंडिय मुंडिया । सिरु मुंडिउ चितु ण मुंडिया। चित्तहं मुंडणु जि कियउ । संसार, खंडण ति कियउ ॥१३॥
__-पाहुडदोहा, पृ० ४० कबीर ने भी कहा है कि चित्तशुद्धि के अभाव में सिर मुंडा भी लिया और संन्यासी का वेश धारण कर भी लिया, तो वह सब निस्सार है
आधाजत्रिन आचार्य अभी
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श्राआनन्द आधाआनन्दमयन
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