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जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान खगोल का जो विवरण प्रस्तुत किया जाता है, उसमें इस प्रकार की किया जाता है, उसमें इस प्रकार की कोई कल्पना नहीं है। वह यह भी नहीं मानता है कि पृथ्वी के नीचे नरक व ऊपर स्वर्ग है। आधुनिक खगोल विज्ञान के अनुसार इस विश्व में असंख्य सौर मण्डल हैं और प्रत्येक सौर मण्डल में अनेक ग्रह-नक्षत्र व पृथ्वियां हैं। असंख्य सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र की अवधारणा जैन परम्परा में भी मान्य है । यद्यपि आज तक विज्ञान यह सिद्ध नहीं कर पाया है कि पृथ्वी के अतिरिक्त किन ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन पाया जाता है, किन्तु उसने इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया कि इस ब्रह्माण्ड में अनेक ऐसे ग्रह-नक्षत्र हो सकते हैं जहाँ जीवन की संभावनाएं हैं। अतः इस विश्व में जीवन केवल पृथ्वी पर है यह भी चरम सत्य नहीं है। पृथ्वी के अतिरिक्त कुछ ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन की संभावनाएं हो सकती है। यह भी संभव है कि पृथ्वी की अपेक्षा कहीं जीवन अधिक सुखद एवं समृद्ध हो और कहीं वह विपन्न और कष्टकर स्थिति में हो। अत: चाहे स्वर्ग एवं नरक और खगोल एवं भूगोल सम्बन्धी हमारी अवधारणाओं पर वैज्ञानिक खोजों के परिणाम स्वरूप प्रश्न चिह्न लगें, किन्तु इस पृथ्वी के अतिरिक्त इस विश्व में कहीं भी जीवन की संभावना नहीं है, यह बात तो स्वयं वैज्ञानिक भी नहीं कहते हैं। पृथ्वी के अतिरिक्त ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन की सम्भावनाओं को स्वीकार करने के साथ ही प्रकारान्तर से स्वर्ग एवं नरक की अवधारणायें भी स्थान पा जाती हैं। उड़न तश्तरियों सम्बन्धी जो भी खोजें हुई हैं, उससे इतना तो निश्चित सिद्ध ही होता है कि इस पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य ग्रह-नक्षत्रों पर भी जीवन है और वह पृथ्वी से अपना सम्पर्क बनाने के लिए प्रयत्नशील भी है। उड़न तश्तरियों के प्राणियों का यहाँ आना व स्वर्ग से देव लोगों की आने की परम्परागत कथा में कोई बहुत अन्तर नहीं है। अतः जो परलोक सम्बन्धी अवधारणा उपलब्ध होती है वह अभी पूर्णतया निरस्त नहीं की जा सकती, हो सकता है कि वैज्ञानिक खोजों के परिणाम स्वरूप ही एक दिन पुनर्जन्म व लोकोत्तर जीवन की कल्पनाएं यथार्थ सिद्ध हो सकें।
जैन परम्परा में लोक को षड्द्रव्यमय कहा गया है। ये षड्द्रव्य निम्न हैं- जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल एवं काल । इनमें से जीव (आत्मा), धर्म, अधर्म, आकाश व पुद्गल ये पाँच अस्तिकाय कहे जाते हैं। इन्हें अस्तिकाय कहने का तात्पर्य यह है कि ये प्रसारित है। दूसरे शब्दों में जिसका आकाश में विस्तार होता है वह अस्तिकाय कहलाता है। षड्द्रव्यों में मात्र काल को अनस्तिकाय कहा गया है, क्योंकि इसका प्रसार बहुआयामी न होकर एक रेखीय है। यहाँ हम सर्वप्रथम तो यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि षड्द्रव्यों की जो 'अवधारणा है वह किस सीमा तक आधुनिक विज्ञान के साथ संगति रखती है।
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कल्पना को स्वीकार नहीं करे, लेकिन वह जीवन एवं उसके विविध रूपों से इंकार नहीं कर सकता है। जीव-विज्ञान का आधार ही जीवन के अस्तित्व की स्वीकृति पर अवस्थित है मात्र इतना ही नहीं, अब वैज्ञानिकों ने अतीन्द्रिय ज्ञान तथा पुनर्जन्म के सन्दर्भ में भी अपनी शोध यात्रा प्रारम्भ कर दी है। विचार सम्प्रेषण या टेलीपैथी का सिद्धान्त अब वैज्ञानिकों की रुचि का विषय बनता जा रहा है और इस सम्बन्ध में हुई खोजों के परिणाम अतीन्द्रिय ज्ञान की सम्भावना को पुष्ट करते हैं। इसी प्रकार पुनर्जन्म की अवधारणा के सन्दर्भ में भी अनेक खोजें हुई हैं। अब अनेक ऐसे तथ्य प्रकाश में आये हैं, जिनकी व्याख्याएं बिना पुनर्जन्म एवं अतीन्द्रिय ज्ञान शक्ति को स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं हैं। अब विज्ञान जीवन धारा की निरन्तरता और उसकी अतीन्द्रिय शक्तियों से अपरिचित नहीं है, चाहे अभी वह उनकी वैज्ञानिक व्याख्याएं प्रस्तुत न कर पाया हो। मात्र इतना ही नहीं अनेक प्राणियों में मानव की अपेक्षा भी अनेक क्षेत्रों में इतनी अधिक ऐन्द्रिकज्ञान सामर्थ्यं होती है जिस पर सामान्य बुद्धि विश्वास नहीं करती है, किन्तु उसे अब आधुनिक विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है। अतः इस विश्व में जीवन का अस्तित्व है और वह जीवन अनन्त शक्तियों का पुंज हैइस तथ्य से अब वैज्ञानिकों का विरोध नहीं है ।
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जहाँ तक भौतिक तत्त्व के अस्तित्व एवं स्वरूप का प्रश्न है वैज्ञानिकों एवं जैन आचायों में अधिक मतभेद नहीं है। परमाणु या पुद्रगल कणों में जिस अनन्तशक्ति का निर्देश जैन आचार्यों ने किया था वह अब आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषणों से सिद्ध हो रही है। आधुनिक वैज्ञानिक इस तथ्य को सिद्ध कर चुके हैं कि एक परमाणु का विस्फोट भी कितनी अधिक शक्ति का सृजन कर सकता है। वैसे भी भौतिक पिण्ड या पुद्गल की अवधारणा ऐसी है जिस पर वैज्ञानिकों एवं जैन विचारकों में कोई अधिक मतभेद नहीं देखा जाता । परमाणुओं के द्वारा स्कन्ध (Molecule) की रचना का जैन सिद्धान्त कितना वैज्ञानिक है, इसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। विज्ञान जिसे परमाणु कहता था, वह अब टूट चुका है। वास्तविकता तो यह है कि विज्ञान ने जिसे परमाणु मान लिया था, वह परमाणु था ही नहीं, वह तो स्कन्ध ही था। क्योंकि जैनों की परमाणु की परिभाषा यह है कि जिसका विभाजन नहीं हो सके, ऐसा भौतिक तत्त्व परमाणु है। इस प्रकार आज हम देखते हैं कि विज्ञान का तथाकथित परमाणु खण्डित हो चुका है। जबकि जैन दर्शन का परमाणु अभी वैज्ञानिकों की पकड़ में आ ही नहीं पाया है। वस्तुतः पाया है। वस्तुतः जैन दर्शन में जिसे परमाणु कहा जाता है उसे आधुनिक वैज्ञानिकों ने क्वार्क नाम दिया है और वे आज भी उसकी खोज में लगे हुए हैं। समकालीन भौतिकी-विदों की क्वार्क की परिभाषा यह है कि जो विश्व का सरलतम और अन्तिम घटक है, वही क्वार्क है। आज भी क्वार्क को व्याख्यायित करने में वैज्ञानिक सफल नहीं हो पाये हैं।
षड्द्रव्यों में सर्वप्रथम हम जीव के सन्दर्भ में विचार करेंगे। चाहे विज्ञान आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार न करता हो, किन्तु वह जीवन के अस्तित्व से इंकार भी नहीं करता है, क्योंकि जीवन की आधुनिक विज्ञान प्राचीन अवधारणाओं को सम्पुष्ट करने में उपस्थिति एक अनुभूत तथ्य है। चाहे विज्ञान एक अमर आत्मा की किस प्रकार सहायक हुआ है कि उसका एक उदाहरण यह है कि जैन
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