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जैन ज्योतिष साहित्य का सर्वेक्षण
२३५ संभवतः इन्हीं गर्ग के वंश में ऋषिपुत्र हुए होंगे। इनका नाम ही इस बात का साक्षी है कि यह किसी ऋषि के वंशज थे अथवा किसी मुनि के आशीर्वाद से उत्पन्न हुए थे। ऋषिपुत्र का एक निमित्त शास्त्र ही उपलब्ध है। इनके द्वारा रची गयी एक संहिता का भी मदनरत्न नामक ग्रंथ में उल्लेख मिलता है । ऋषिपुत्र के उद्धरण बृहत्संहिता की महोत्पली टीका में उपलब्ध हैं।
ऋषिपुत्र का समय वराहमिहिर के पहले होना चाहिए । यतः ऋषिपुत्र का प्रभाव वराहमिहिर पर स्पष्ट है । यहाँ दो-एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया जायगा।
ससलोहिवण्णहोवरि संकुण इत्ति होइ णायव्वो। संजामं पुण घोरं खज्जं सूरो णिवेदई ।।---ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्र
शशिरुधिकरीनम मानौ नभस्थले भवन्ति संग्रामाः।--वराहमिहिर अपने निमित्तशास्त्र में पृथ्वी पर दिखाई देनेवाले आकाश में दृष्टिगोचर होनेवाले और विभिन्न प्रकार के शब्द श्रवण द्वारा प्रकट होनेवाले इन तीन प्रकार के निमित्तों द्वारा फलाफल का अच्छा निरूपण किया है। वर्षोत्पात, देवोत्पात, राजोत्पात, उल्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात इत्यादि अनेक उत्पातों द्वारा शुभाशुभत्व की मीमांसा बड़े सुन्दर ढंग से की है ।
___ लग्नशुद्धि या लग्नकुंडिका नाम की रचना हरिभद्र की मिलती है । हरिभद्र दर्शन, कथा और आगम शास्त्र के बहुत बड़े विद्वान् थे । इनका समय आठवीं शती माना जाता है । इन्होंने १४४० प्रकरण ग्रन्थ रचे हैं। इनकी अब तक ८८ रचनाओं का पता मुनि जिन विजयजी ने लगाया है। इनकी २६ रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
लग्नशुद्धि प्राकृत भाषा में लिखि गयी ज्योतिष रचना है। इसमें लग्न के फल, द्वादश भावों के नाम, उनसे विचारणीय विषय, लग्न के सम्बन्ध में ग्रहों का फल, ग्रहों का स्वरूप, नवांश, उच्चांश आदि का कथन किया गया है। जातकशास्त्र या होराशास्त्र का यह ग्रन्थ है। उपयोगिता की दृष्टि से इसका अधिक महत्त्व है । ग्रहों के बल तथा लग्न की सभी प्रकार से शुद्धि-पापग्रहों का अभाव, शुभग्रहों का सद्भाव वर्णित है।
महाविराचार्य-ये धुरन्धर गणितज्ञ थे। ये राष्ट्रकूट वंश के अमोघवर्ष नृपतुंग के समय में हुए थे, अतः इनका समय ई. सन् ८५० माना जाता है। इन्होंने ज्योतिषपटल और गणितसार-संग्रह नाम के ज्योतिष ग्रन्थों की रचना की है। ये दोनों ही ग्रन्थ गणितज्योतिष के हैं ? इन ग्रन्थों से इनकी विद्वत्ता का ज्ञान सहज ही में आँका जा सकता है। गणितसार के प्रारम्भ में गणित की प्रशंसा करते हुए बताया है कि गणित के बिना संसार के किसी भी शास्त्र की जानकारी नहीं हो सकती है । कामशास्त्र, गान्धर्व, नाटक, सूपशास्त्र, वास्तुविद्या, छन्दशास्त्र, अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण, कलाप्रभृति का यथार्थ ज्ञान गणित के बिना संभव नहीं है; अतः गणितविद्या सर्वोपरि है।
इस ग्रंथ में संज्ञाधिकार, परिकर्मव्यवहार, कलासवर्णव्यवहार, प्रकीर्णव्यवहार, त्रैराशिव्यवहार, मिश्रकव्यवहार, क्षेत्र-गणितव्यवहार, खातव्यवहार, एवं छायाव्यवहार नाम के प्रकर मिश्रकव्यवहार में
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