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समग्र भारतीय चित्र शैलियों में जितने भी प्राचीन चित्र प्राप्त हैं उनमें मुख्यता और प्राचीनता जैन चित्रों की है । ये चित्र दिगम्बर जैनियों से सम्बन्धित हैं जिन्हें अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों को चित्रित करने व कराने का बड़ा शौक था । प्राकृत भाषा में रचित जैन ग्रन्थों का अध्ययन करने से तत्कालीन समाज में विद्वानों साहित्यकारों एवं जन सामान्य में चित्रकला के प्रति अनुराग तथा निष्ठा का बोध होता है। दसवीं शती से पन्द्रहवीं शती के मध्यकाल में भारतीय चित्रकला की परम्परा में जैन व बौद्ध कला का बाहुल्य है। इससे पूर्व के काल में जैन कला का समृद्ध रूप मूर्तियों तथा मन्दिरों के शिल्प में परिलक्षित होता है। इस काल में इसका स्वरूप निखर आया था । चित्रकला के जो नमूने आज उपलब्ध हैं उनमें अधिकतर जैन साहित्य की विभिन्न कृतियों के मध्य विभिन्न सन्दर्भों में चित्रांकित हैं।
जैन कला में जहाँ मूर्तिकला और शिल्प एवम् स्थापत्य के क्षेत्र में दिगम्बर परम्परा का बाहुल्य है, वहाँ चित्रकला के क्षेत्र में दवेताम्बरीय जनों का महत्वपूर्ण योग रहा है। जैन का महत्वपूर्ण योग रहा है। जैन चित्रकला गुजरात की श्वेताम्बर कलम से पूर्ण विकास की ओर अग्रसर होकर वर्षों तक राजपूताने में अपना विकास कराती रही और बाद में ईरानी प्रभावों से मुक्त होकर "राजपूत कलम" में ही विलयित हो गई। 12वीं सदी के पूर्व जहाँ मुगल शैली की विका सावस्था में जैन चित्रकला की प्रगति शिथिल पड़ गई वहीं 12 वीं सदी के बाद महमूद गजनवी के विध्वंशों के बावजूद • भी जैन चित्रकला आबू और गिरनार के केन्द्रों में अपने परिवेश में नव निर्माण की ओर अग्रसर हुई। बाद में जैन चित्रकारों ने राजपूत और मुगल शैलियों से प्रेरणा ग्रहण कर अपने क्षेत्र को और भी
व्यापक बनाया ।
2. भारतीय चित्रकला वाचस्पति वैरोला, पृष्ठ 93
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विभिन्न प्राचीन जैन ग्रन्थों में जैन चित्रकला के विविध पक्षों का वर्णन प्राप्त होता है । कल्पसूत्र आदि में भगवान महावीर का चित्रमय वर्णन मिलता है । "प्रश्न व्याकरण सूत्र" ( 2/5/16 ) में चित्रों की अनेक श्रेणियों का उल्लेख है । इस व्याकरण ग्रन्थ में चित्रों की तीन प्रमुख श्रेणियों सचित्त (मानव, पशु, पक्षी), अचित्त ( नदी, नद, पहाड़, आकाश) और मिश्र (संयुक्त) में वर्गीकृत किया गया है। लकड़ी, कपड़े और पत्थर पर अनेक रंगों के योग से उरेहे गए चित्रों को "लेपकम्प" कहा है। लोककला के उन्नत स्वरूप के रूप में इस काल में अल्पना चित्रों का भी अंकन किया जाता था। साथ ही मिट्टी-पत्थर व हाथीदांत पर भी चित्र उरेहे जाते थे। एक कथाकृति "नाया- धम्म कहाओ" (1/16/77-80) से विदित होता है कि चम्वा नामक नगरी में ललित गोष्टी ( ललियाएणामं गोडी) नाम की एक प्रमोद सभा विद्यमान थी। इस ग्रन्थ में लिखा है ( 1/1/17 ) कि महाराज श्रमिक के महल में दीवारों पर बड़े अच्छे चित्र उरेहे हुए थे। इसी ग्रन्थ में इस प्रकार के अन्य अनेक उदाहरणों का भी उल्लेख है ।
इस कला की अनेक जैन साहित्यिक रचनाओं में भी चित्रकला सम्बन्धी उल्लेख हैं । श्री गेरोला के अनुसार "11वीं-12वीं शताब्दी में रचित जैन साहित्य की कथा कृतियों में चित्रकला के सम्बन्ध में बड़ी ही उपयोगी चर्चाऐं देखने को मिलती हैं । मागधी प्राकृत की कथा कृति "सूर सुन्दरी कहा" (रचनाकाल 1338 ई.) में श्लेषोक्ति के द्वारा किसी नायक की एकान्त प्रेमासक्ति को भ्रमर और कुमुदनी का चित्र बनाकर व्यक्त किया गया है। प्राकृत भाषा की दूसरी कथाकृति " तरंगवती" (सम्भवतः आंध्रभृत्य राजाओं के आश्रय में निर्मित) में नायिका तरंगवती द्वारा एक चित्र प्रदर्शनी का आयोजन इस उद्देश्य से किये जाने का उल्लेख है कि कदाचित इस लोभ से उसका रूठा हुआ प्रेमी वहां आ जाय । "
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