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तो कहें भांति पदारथ पांति कहां या विधि संत कहैं धनि हैं धनि
लहते रहते अविचारी । जिन बैन बड़े उपकारी || जैन शतक्, पृ० १३
पूजा और भक्ति
पूजा भक्तिका एक प्रमुख साधन है । भगवान् की पूजा करके सामान्य मानव भी असामान्य बन जाता है । भाव दृष्टिसे पूजा एवं स्तोत्र - दोनों समान हैं । इनमें केवल शैलीगत भेद ही है । किन्तु कुछ लोग परि णामकी दृष्टि से भी दोनोंमें महदन्तर स्वीकार करते हैं । वे पूजाकोटिसमं स्तोत्रं मानते हैं । यहाँ कहने वालेका पूजासे तात्पर्य केवल द्रव्य पूजासे है क्योंकि भावमें तो स्तोत्र भी शामिल है। पूजकका ध्यान पूजन की बाह्य सामग्री, स्वच्छता आदि पर ही रहता है जबकि स्तुति करने वाले भक्तका ध्यान एकमात्र स्तुत्य व्यक्ति के विशिष्ट गुणों पर टिकता है । वह एकाग्रचित्त होकर अपने स्तुत्यके एक-एक गुणको मनोहर शब्दोंके द्वारा व्यक्त करनेमें निमग्न रहता है। पूजा एक ऐसा व्यापक शब्द है कि इसमें स्तुति, स्तोत्र, भजन आदि सब समाविष्ट होता हैं । पूजाके सम्पादन में ध्यान, जप, तपादि किसी न किसी रूपमें आ ही जाते हैं । पूजाकी जयमालामें आराध्य की पूर्ण प्रशस्ति रहती है । एवं पूजा करने वालेकी विशुद्ध कामना भी इसमें व्यक्त हो जाती है । पूजाके दोनों ही रूप - द्रव्य और भाव पूजा आत्म-विशुद्धिके लिये परम आवश्यक हैं । इन दोनों पूजाओंमें इतना ही अन्तर है कि द्रव्यपूजामें द्रव्योंके द्वारा भगवान् के विम्ब अथवा किसी अन्य चिन्हकी पूजा होती है तथा भाव पूजामें जिनेन्द्र देवको मानसके अन्तस्थल में स्थापित किया जाता है। आचार्य वसुनन्दिने पूजाके छः भेद स्वीकार किये हैं: नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव । *
यहाँ पूजा शब्दके सम्बन्धमें डा० सुनीतिकुमार चाटुर्ज्याने अपनी पुस्तक भारतमें आर्य और अनार्य में लिखा है कि होम और पूजा – इन दोनोंकी जड़ अलग-अलग है पर आर्य भाषी तथा द्राविड़ भाषी मित्र आर्यानार्य हिन्दूने इन्हें विरासत या पितृपितामहागत रिक्थके रूपमें प्राप्त किया है । पूजामें फूलका उवयोग हुआ करता है । बगैर फूलसे पूजा नहीं हो सकती । फूलके विकल्पमें ही जलादिका व्यवहार होता है । पूजा शब्द वस्तुतः आर्य भाषाका शब्द नहीं है । मार्क कालिन्सके मतके अनुसार इस शब्दका मौलिक अर्थ फूलोंसे
धर्मकार्य करना है । इस शब्दका उद्गम द्रविड़ भाषा में हैं । पूजाके अतिरिक्त भजन, आरती, पाठ, विनती, सामायिक पाठ, स्तुतियाँ आदि भी भक्तिके विविध आयाम हैं जिनको अपनाना भक्तके लिये आवश्यक है ।
भक्तिकी उपलब्धियाँ
पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि भक्तिकी उपलब्धियाँ अनेक हैं, जो सेवकके मानसको समुज्ज्वल करती हैं तथा उसे स्व-पर-भेदके हेतु कई रूपोंमें प्रबुद्ध करती हैं । संसारसे विमुख होकर वह साधक विषय वासनाको भुजङ्ग मानने लगता है, स्वयं जागरूक बनकर सांसारिक वैभवको त्याज्य मानता है एवं धर्म साधना में लीन होकर अपने आपको सम्मार्गका पथिक बनाता है । इन उपलब्धियोंमें आत्मप्रबोधन, जगनिस्सारता, पश्चात्तापको अभिव्यक्ति, आत्मविश्वासकी जागृति तथा ब्रह्मैक्य प्रमुख हैं । जैन गीतकारोंने इन उपलब्धियोंको भी गीतबद्ध किया है । इनके कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं ।
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१. प्रेमसागर जैन, जैन भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि (२) पं० हीरालाल जैन, पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान और अनेकांत, वर्ष १४, किरण ७, १० १९४
लय,
२. प्रेमसागर जैन, जैनभक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि, पृ० २५ ।
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