________________ जैन-कौन ? सौ. पारसरानी मेहता, यदि कोई वस्तु अनायास अथवा बगैर श्रम के प्राप्त हो जाए तो उसका महत्व मालूम नहीं होता है। वैसे ही किसी जैनधर्मावलम्बी के यहां पैदा हो जाने से हम जैन अवश्य हैं पर इस बारे में गंभीरता से सोचने की कोई आवश्यकता है, ऐसा हम महसूस नहीं करते / जब व्यक्ति किसी संघ या संघटन में प्रवेश करता है तब वह बराबर सचेष्ट रहता है कि अमुक मर्यादाओं, नियमों अथवा शर्तों का पालन करना है। पर जैन कुल में उत्पन्न हो गया हूं इसलिये कुछ विशेष नियम या अनुबंध हैं इस ओर क्वचित् ही ध्यान जाता है। जैनियों के आराध्य भ. महावीर ने कहा है कि-"मनुष्य कर्म या कार्य से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है जन्म से नहीं" इस बोध वाक्य के पीछे बहुत बड़ा चिन्तन है। यह चिन्तनधारा हमें बताती है कि क्या हम वास्तव में जैन हैं ? अथवा मात्र जैन के यहां पैदा हो गये हैं। जैन होने के लिये पहला और मुख्य नियम है अहिंसा में अडिग आस्था एवं विश्वास / प्रभु महावीर ने प्राणीवध का घोर विरोध किया, उसे त्याज्य व निन्दनीय ठहराया / “माहो' अर्थात् “मत मारो" "जीओ और जीने दो' संसार के समस्त प्राणियों को जीवन प्रिय है इसलिये किसी भी प्राणी के प्राणों का हरण निःकृष्ट है। मात्र इतना ही नहीं अहिंसक वृत्ति वाला व्यक्ति न किसी के अधिकारों को कुचलता है, न किसी का शोषण करता है। यदि किसी अन्य व्यक्ति का नुकसान व अहित करके अथवा विचारों की क्रूरता से अहिंसक श्रेणी में आना चाहे, यह कैसे संभव हो सकता है ? ___अहिंसा के मूल आधार दया व क्षमा हैं / जीवन के हर पहलु में इसे उतारना जैन होने का प्रथम लक्षण है। दूसरी शर्त है-असत्य आचरण न करना। चाहे धार्मिक हो, सामाजिक हो या राष्ट्रीय हो, नैतिक व सत्य आचरण ही सुरक्षा व सामञ्जस्य' प्रदान करता है। स्वार्थवश जब आदमी असत्य व अनैतिक क्रियाएं या आचरण करता है, सामाजिक व आर्थिक व्यवस्थाएं डगमगा जाती हैं। सारी सृष्टि के संतोष व सुख के लिए सत्याचरण ही एकमात्र उपाय है। ___ तीसरी मर्यादा है--चोरी न करना, सूत्र छोटा है पर अर्थ गहन है। सेंध मारकर या डाका डालकर चोर चोरी करता है, पर अचोर्य व्रत का अर्थ है-वस्तु में मिलावट न करना, आज तो ऐसी ऐसी मिलावट है कि प्राणों पर बीत जाती है। कम तोलना, नापना, निर्धारित लाभ की अपेक्षा अधिक लेने का प्रयास करना कन्या व वर विक्रय दहेज रूप में करना इत्यादिक कार्य स्वयं चोरी न करते हुए भी चोर्य कर्म के अन्तर्गत ही हैं / ऐसे कार्य आत्मा का पतन तो करते ही हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा भी गिराते हैं। चौथा अनुबंध है--ब्रह्मचर्य व्रत / मानव जाति ओजस्वी, तेजस्वी, सबल, स्वस्थ और सक्षम बने इस दृष्टि से यह एक साधना है। जो इसे संपूर्णरूपेण स्वीकारते हैं वे महाव्रती कहलाते हैं। सर्वसामान्य जन स्वपति या स्वपत्नी के सिवाय अन्य सब पुरुष व स्त्री से शारीरिक संसर्ग त्याग नियम करते हैं। और दांपत्य जीवन में भी संयमित व मर्यादित होते हैं / वास्तव में शील व ब्रह्मचर्य का प्रभाव मनुष्य के मन पर, मस्तिष्क पर बल्कि उसकी वाणी, आचरण और व्यवहार पर भी होता है, ऐसे साधक सर्वजयी होते हैं / पांचवीं शर्त है-आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना / लोभ व लालच के वशीभूत होकर संग्रह वृत्ति से दूसरों का शोषण होता है। अहिंसक समाज रचना में विश्वास रखने वाला व्यक्ति दूसरों को पीड़ित करके खुद सुख की कामना नहीं कर सकता / कहावत है--सुख पाना हो तो सुख देना सीखो। प्यार पाना हो तो प्यार करना सीखो / अपनी वस्तु को बांटकर खाना, जीवन को सादा व उच्च बनाना, लालसाएं न रखना, अपरिग्रह की परिभाषा है। ये पांच आचरण की कसौटियां हैं। जब हम अपने आपको इन पर कसेंगे तभी हम कितने अंश में जैन हैं इसकी परीक्षा स्वतः कर सकेंगे। 148 राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org