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जैन कला विकास और परम्परा १६१.
नामक जैन मन्दिर है । अजन्ता से लगभग ५० मील की दूरी पर एलौरा का शिला पर्वत अनेक गुहा-मन्दिरों से अलंकृत है। यहाँ पर पाँच जैन गुफायें हैं जिनका निर्माण काल ८०० ई० के लगभग है ।
महाराष्ट्र प्रदेश में उस्मानाबाद से लगभग १२ मील पर स्थित पर्वत में भी गुफायें हैं। तीन गुफाओं में जिनप्रतिमाएँ विद्यमान हैं। इन गुफाओं का निर्माण काल बर्गेस के मत में ५००-६५० ई० के मध्य में हुआ था । ११वीं शती की कुछ जैन गुफाएँ अंकाई-टंकाई में हैं। मध्यप्रदेश के ग्वालियर नगर में १५वीं सदी में निर्मित तोमर राजवंश के काल की जैन गुफाएं हैं। उपर्युक्त गुफाओं के अतिरिक्त भारत के विभिन्न भूभागों पर जैन गुफाएँ विद्यमान हैं।
स्तूप- चैत्य, मानस्तम्भ एवं कीर्तिस्तम्भ
प्राचीन जैन स्तूप सुरक्षित अवस्था में विद्यमान नहीं हैं। मथुरा जो जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था, वहाँ अनेक स्तूपों एवं विहारों का निर्माण हुआ था। मथुरा में दो प्रमुख स्तूपों का निर्माण शुंग और कुषाण काल में हुआ था । मध्यकाल में भारत में जैन देवालय के सामने विशाल स्तम्भों के निर्माण की परम्परा थी। चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ कला की भव्यता का मूक साक्षी है । कीर्तिस्तम्भ एवं मानस्तम्भ के भी उदाहरण उपलब्ध हैं ।
मन्दिर
पुरातन जैन अवशेषों में मन्दिरों का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतवर्ष में सबसे प्राचीन जैन मन्दिर जिसकी रूपरेखा सुरक्षित है, वह है ऐहोल का मेगुटी मन्दिर । इसका निर्माण ६३४ ई० में कराया गया था ।
उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले में स्थित देवगढ़ के जैन मन्दिरों में केवल क्रमांक १२ एवं १५ ही अधिक सुरक्षित हैं, इन प्रतिहारकालीन मन्दिरों के निर्माण की तिथि हवीं शती ई० है । राजस्थान के मन्दिरों में ओसियां (जिला जोधपुर) के महावीर मन्दिर का निर्माण प्रतिहारनरेश वत्सराज ( ७८३-१२ ) के समय में हुआ था । अभिलेखीय साक्ष्यों से जात होता है कि इस मन्दिर का प्रवेश मण्डप १५६ ई० में पुनर्निर्मित किया गया था तथा १०५६ ई० में एक अलंकृत तोरण का निर्माण हुआ था। घानेराव (जिला पाली) के महावीर मन्दिर का गर्भगृह आकार में त्रिरथ है । इस मन्दिर की तिथि १०वीं सदी ई० है उदयपुर के निकट स्थित अहाद का महावीर मन्दिर १०वीं सदी के अन्त की रचना है । कुभारियाजी ( जिला बनासकांठा ) में जैन मन्दिरों का एक समूह है, जिनका काल ११वीं सदी है। आबू पर्वत पर बने हुए जैन मन्दिरों की अपनी एक निरासी शान है। यहाँ ४-५ हजार फीट ऊँची पहाड़ी की हरी भरी पाटी में जैन मन्दिर है। इसे देलवाड़ा कहते हैं। देलवाड़ा के जैन मन्दिरों पर सोलंकी शैली का प्रभाव है। इन मन्दिरों में विमलवसहि एवं लूणवसहि प्रमुख हैं। प्रथम का निर्माण १०३१ ई० में विमलशाह ने कराया था। इस मन्दिर में विमलशाह के वंशज पृथ्वीपाल ने ११५० ई० में सभामण्डप की रचना करायी थी । मन्दिर आदिनाथ को समर्पित किया गया है। द्वितीय मन्दिर का निर्माण १२३० में वस्तुपाल-तेजपाल बन्धुओं ने जो गुजरात के चालुक्य नरेश के मन्त्री थे, कराया था ।
गुजरात में जैन मन्दिर शत्रु जय एवं गिरनार की पहाड़ी पर स्थित हैं। गिरनार ( जिला जूनागढ़) में स्थित आदिनाथ मन्दिर का निर्माण एक जैन मन्त्री (वस्तुपाल ने कराया था। इसी के समकालीन तरंग का बहुत जैन मन्दिर है जिसका निर्माण कुमारपाल ने कराया था ।
जैनियों ने अनेक तीर्थस्थानों में विशाल कलात्मक मन्दिरों का निर्माण कराया था। बिहार में पारसनाथ, कर्नाटक में श्रवणबेलगोला, मध्यप्रदेश में खजुराहो, कुण्डलपुर, मुक्तागिरि तथा दक्षिण भारत में मुड़-बिद्रि एवं गुरुबायकेरी के मन्दिरों में मन्दिर निर्माण कला का विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है। मध्यप्रदेश के निमाड़ जिले में स्थित ऊन में दो जैन मन्दिर हैं जो भूमिज मन्दिर वर्ग समूह के हैं। राजस्थान में भूमिज शैली का प्राचीन मन्दिर पाली जिले में स्थित सेवरी का महावीर मन्दिर है, यह मन्दिर रूपरेखा में पंचश्व है। इसका काल १०१० १०२० ई० ज्ञात होता है। इस शैली का एक अन्य प्राचीन मन्दिर मध्यप्रदेश के रायपुर जिले में स्थित आरंग का जैन मन्दिर है,
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