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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, अंगोपांग, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर, सुस्वर, अयशस्कीर्ति, यशस्कीर्ति, निर्माण और तीर्थकरत्वरे । ये ही नामकर्म के भेद (प्रकार) कहे जाते हैं। इनका विवेचन प्रस्तुत है ।
१. गति नामकर्म
गति, भव, संसार - ये पर्यायवाची शब्द हैं । जिसके उदय से आत्मा भवान्तर को गमन करता है वह गति नामकर्म है । यदि यह कर्म न हो तो जीव गति रहित हो जाएगा। इसी गति नामकर्म के उदय जीव में रहने से आयु कर्म की स्थिति रहती है और शरीर आदि कर्म उदय को प्राप्त होते है । नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति - ये इसके चार भेद हैं। जिन कर्मस्कन्धों के उदय से आत्मा को नरक, तिर्यंच आदि भव प्राप्त होते हैं, उनसे युक्त जीवों को उन उन गतियों में नरक गति, तिर्यंचगति आदि संज्ञाएँ प्राप्त होती हैं ।
२. जाति नामकर्म
जिन कर्मस्कन्धों से सदृशता प्राप्त होती है, जीवों के उस सदृश परिणाम को जाति कहते हैं । अर्थात् उन गतियों में अव्यभिचारी सादृश से एकीभूत स्वभाव ( एकरूपता) का नाम जाति है । यदि जाति नामकर्म न हो तो खटमल खटमल के समान, बिच्छू बिच्छू के समान इसी प्रकार अन्य सभी प्राणी सामान्यतः एक जैसे नहीं हो सकते। जाति के पाँच भेद हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनके लक्षण इस प्रकार हैंजिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय जाति में पैदा हो अर्थात्
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एकेन्द्रिय शरीर धारण करे उसे एकेन्द्रिय जाति नामकर्म कहते है । इसी प्रकार द्वीन्द्रियादि का स्वरूप बनता है ।
३. शरीर नामकर्म
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जिसके उदय से आत्मा के लिए शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है । यह कर्म आत्मा को आधार या आश्रय प्रदान करता है । क्योंकि कहा है कि “यदि शरीर नामकर्म न स्यादात्मा विमुक्तः स्यात्- " अर्थात् यदि यह कर्म न हो तो आत्मा मुक्त हो जाय। इसके भी पाँच भेद हैं- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस् और कार्मण शरीर । जिसके उदय से जीव के द्वारा, ग्रहण . किये गये आहार वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा और शुक्र स्वभाव से परिणत होकर औदारिक शरीर रूप हो जाते हैं उसका नाम औदारिक शरीर है। इसी प्रकार अन्य भेदों का स्वरूप बनता है । ४. बन्धन नामकर्म
शरीर नामकर्म के उदय से जो आहार - वर्गणारूप पुद्गल - स्कन्ध, ग्रहण किये उन पुद्गलस्कन्धों का परस्पर संश्लेष सम्बन्ध जिस कर्म के उदय से हो उसे बंधन - नामकर्म कहते हैं । यदि यह कर्म न हो तो यह शरीर बालू द्वारा बनाये हुए पुरुष के शरीर की तरह हो जाए। इसके भी औदारिक, वैक्रियिक शरीर बन्धन आदि पाँच भेद हैं।
५. संघात नामकर्म
जिसके उदय से औदारिक शरीर छिद्ररहित परस्पर प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाह रूप एकत्व प्राप्त हो उसे संघात नामकर्म कहते हैं । इसके भी औदारिक- शरीर- संघात आदि पाँच भेद हैं ।
६. संस्थान नामकर्म
जिसके उदय से औदारिक आदि शरीर के आकार की रचना हो वह संस्थान नामकर्म है । इसके छह भेद हैं
जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में
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