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में कर्म-विषयक जैन साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है । आचार्य गुणधर विरचित कसायपाहुडसुत तथा आचार्य वीरसेन स्वामी विरचित इसकी सोलह खण्डों में प्रकाशित बृहद् जय धवला नामक टीका, आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि विरचित षट्खण्डागम तथा इस पर आचार्य वीरसेन एवं जिनसेन स्वामी विरचित धवला नामक टीका, पंचसंग्रह, मूलाचार का पर्याप्ति अधिकार, गोम्मटसार आदि अनेक महान् ग्रन्थ कर्म-विषयक साहित्य में प्रमुख हैं । इस सन्दर्भ में विशेष जानकारी हेतु सिद्धान्ताचार्य पं. श्री कैलाशचन्द शास्त्री द्वारा लिखित " जैन साहित्य का इतिहास" प्रथम भाग विशेष दृष्टव्य है ।
कर्मबंध और उसकी प्रक्रिया
मूलतः आत्मा की दो अवस्थाएँ हैं - बद्धदशा और मुक्तदशा। एक में बन्धन है तो दूसरी में मुक्ति । जगत् में कर्मबंध का और आत्मा के अशुद्ध भाव का एक विलक्षण ही सम्बन्ध है । आत्मा में बंध तो निजी विकल्पों के कारण होता है । यदि अन्तः भावों में राग-द्वेष की चिकनाई न हो तो बाह्य पदार्थों के रजकण उस पर चिपक नहीं सकते और न उस आत्मा को मलिन ही कर सकते हैं। आचार्य अकलंकदेव ने तत्वार्थवार्तिक में उदाहरण
हुए कहा है कि जिस प्रकार पात्र विशेष में रखे गये अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों का मद्य (शराब) रूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों मन, वचन, काय की क्रिया रूप योग के कारण कर्मरूप परिणमन होता है । जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वयमेव कर्मरूप परिणमन करते हैं । कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने से जो अवस्था उत्पन्न होती है, उसे बंध कहते हैं ।
वस्तुतः प्रत्येक प्राणी की प्रवृत्ति के पीछे राग-द्वेष की वृत्ति काम करती है । यह प्रवृत्ति अपना एक संस्कार
जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में
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जैन संस्कृति का आलोक
छोड़ जाती है। संस्कार से पुनः प्रवृत्ति एवं प्रवृत्ति से पुनः संस्कार निर्मित होते हैं । इस तरह यह सिलसिला बीज और वृक्ष की तरह सनातन काल से चला आ रहा है । जीव और कर्मों का सम्बन्ध अनादि है या सादि ? इसके उत्तर में आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि जीव और कर्मों का अनादि सम्बन्ध भी है और सादि सम्बन्ध भी है । कार्यकारण भाव की परम्परा की अपेक्षा अनादि सम्बन्ध है और विशेष की अपेक्षा सादि सम्बन्ध है । जैसे बीज और वृक्ष का सम्बन्ध । यद्यपि ये सम्बन्ध अनादि से चले आ रहे हैं किन्तु बीज के बिना वृक्ष नहीं होता और वृक्ष के बिना बीज नहीं होता । इस अपेक्षा से प्रत्येक बीज और वृक्ष सादि व सहेतुक हैं। इस प्रकार प्रत्येक कर्मबंध व जीव का विकारी परिणाम सहेतुक व सादि है, किन्तु संतान परंपरा की अपेक्षा अनादि है । ( सर्वार्थ सिद्धि २/४१)
प्रायः सभी परलोकवादी दर्शनों की यह मान्यता है कि आत्मा जैसे अच्छे या बुरे कर्म करता है, तदनुसार ही उसमें अच्छा या बुरा संस्कार पड़ जाता है और उसे उसका अच्छा या बुरा फल भोगना पड़ता है किन्तु जैनधर्म जहाँ अच्छे या बुरे संस्कार आत्मा में मानता है वहाँ सूक्ष्म कर्मपुद्गलों का उस आत्मा से बंध भी मानता है । उसकी मान्यता है कि इस लोक में सूक्ष्म कर्म पुद्गल स्कन्ध भरे हुए हैं। जो इस जीव की कायिक, वाचिक या मानसिक प्रवृत्ति रूप योग से आकृष्ट होकर स्वतः आत्मा से बद्ध हो जाते हैं और आत्मा में वर्तमान कषाय के अनुसार उनमें स्थिति और अनुभाग पड़ जाता है। जब वे कर्म अपनी स्थिति पूरी होने पर उदय में आते हैं तो अच्छा या बुरा फल देते हैं । इस प्रकार जीव पूर्वबद्ध कर्म के उदय से क्रोधादि कषाय करता है और उससे नवीन कर्म का बंध करता है ।
कर्मबंध के चार भेद हैं १. कर्मों में ज्ञान को घातने,
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