________________ होने के कारण विश्व और उसकी पवित्रता के सम्बन्ध में यथार्थ नहीं कहते / हां, योग और जैन मान्यताओं के बीच कुछ सह-सम्बन्ध सोचा जा सकता है क्योंकि जैन भी योग का अभ्यास कर पवित्रता की ओर बढ़ते हैं / लेकिन पतंजल की 'पुरुष विशेष' की मान्यता जैन और बौद्धों से मेल नहीं खाती। ऐसे विशेष देव या पुरुष की मान्यता मानव को अपने विकास के लिए परावलम्बी बनाती है। मानव अपने श्रम और साधना से स्वयं ही पूर्ण विकास कर सकता है, यह महावीर और बुद्ध की मूलभूत शिक्षा है। - ईश्वरवादी दर्शनों में कर्मकाण्ड और भक्तिवाद का विविध रूप में विकास हुआ। देवता के मन्दिर बनने लगे, पूजाओं को विविध विधियां आरम्भ हुई ईश्वर लोक की कल्पनायें की जाने लगी और ईश्वरीय इच्छा के आगे सभी नतमस्तक हो गये। इन मान्यताओं के विरुद्ध शिकायत करने वालों में जैन सर्वप्रथम रहे / मध्यकालीन धार्मिक साहित्य के अवलोकन से पता चलता है कि जैनों ने वेद, बलिप्रथा, ईश्वर, कर्मकाण्ड आदि का विरोध किया और सम्भवतः आत्मविकास के लिये 'अपवित्र' संसार की बात कही। जैनों ने ईश्वर के विपयसि में आप्त पुरुष की बात कही और तर्क तथा पौराणिक कथाओं और आख्यानों के बल पर ईश्वर का खण्डन किया / शास्त्रों में वर्णित विरोधी आदेशों का उल्लेख किया। उन्होंने कर्मवाद और सामान्य अनुभूति के आधार पर श्राद्ध के समान अनेक रूढ़ संस्कारों का विरोध किया / सोमदेव सूरि ने बारह मूढ़ताओं का वर्णन करते हुए बताया है कि रूढ़ियां सम्यक् दर्शन में बाधक होती हैं। जैन धारणाओं के अनुसार, विश्व में चार मंगल और शरण होते हैं-अरिहन्त, सिद्ध, साध और धर्म / कोई भी व्यक्ति अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र की विशेषता से ही अरिहन्त हो सकता है, किसी की कृपा से नहीं। अनेक अवतार या तीर्थकर उसके लिये मार्गदर्शक का काम करते हैं / इस प्रकार जैन योगमत के अनुरूप किसी पुरुष विशेष को न मानकर समय-समय पर होने वाले पुरुष विशेषों या गुरुओं का मानता है / ऐसे पुरुषविशेषों की पूजा-भक्ति से कर्मक्षय, बोधिलाभ, समाधिमरण संभावित है लेकिन इससे सांसारिक लाभ कुछ भी नहीं होता जैसा अन्य मत मानते हैं / कर्मवादी जैन कर्म को एक मनो-भौतिक जटिल तन्त्र मानते हैं जिस पर विजय पाना अति दुष्कर है / जैनाचार्यों ने बताया है कि ईश्वरवाद और कर्मवाद साथ-साथ नहीं रह सकते / ईश्वरेच्छा की पवित्रता मानव का उद्धार नहीं कर सकती। हिंसा और पवित्रता साथ-साथ नहीं रह सकते / अहिंसा ही परमधर्म है। इसी को जैन शास्त्रों में सम्यक्त्व कहा गया है। जैनों के लिये रत्नत्रय रूप सम्यक्त्व (श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र) ही पवित्र है। इसकी प्राप्ति के लिये शास्त्रों में अनेक उपाय सुझाये गये हैं। सम्यक्त्व के अनुगमन से मानव पवित्र होता है। -533 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org