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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
चार अर्पणा, ध्यान (समाधि), ध्यान, समतिक्रमण, परिवर्धनपरिहीन, आलम्बन, भूमि ग्रहण, प्रत्यय एवं चर्या । इनमें संख्या को प्रमुख कहा जा सकता है । संख्या की दृष्टि से साधक कर्मस्थानों का चुनाव सात प्रकारों से करता है
(१) बस कसिण-पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नील, पीत, लोहित, अवदात, आलोक और परिच्छिन्नाकाश ।
(२) वस अशुभ-उद्धमातक, विनीलक, विपूयक, विच्छिद्रक विखदितक, विक्षिमृक, हतविक्षिप्तक, लोहितक, पुलवक और अस्थिक ।
(३) वस अनुस्मृतियां-बुद्ध, धर्म, संघ, शील, त्याग, देवता, मरण, कायगता, आनापान और उपशम । (४) चार ब्रह्मबिहार-मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा । (५) चार आरूप्य-आकाश, विज्ञान, आकिंचन्य और नैव संज्ञानासंज्ञा । (६) एक संज्ञा-आहार में प्रतिकूलता, एवं (७) एक व्यवस्थान-चारों धातुओं का व्यवस्थापन ।
इस प्रकार से शील का परिपालन करने वाले योगी के लिए यह आवश्यक है कि वह अल्पेच्छा, सन्तोष, संलेख, प्रविवेक आदि गुणों से मण्डित हो। शील की परिशुद्धि के लिए उसे लोकामिष (लाभ-सत्कार आदि) का परित्याग, शरीर और जीवन के प्रति निर्ममत्व तथा विपश्यना की प्राप्ति भी अपेक्षित है। इसकी प्रपूर्ति के लिए बौद्धधर्म में तेरह ध ताङ्गों का पालन करना उपयोगी बताया गया है-पांसुकूलिक, चीवरिक, पिण्डपातिक, सापदानचारिक, एकासनिक, पात्रपिण्डिक, खलुपच्छामत्तिक, आरण्यक, वृक्षमूलिक । इन चु तांगों के परिपालन से क्लेशावरण दूर होता है और निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग स्पष्ट हो जाता है।
दिव्यज्ञान प्राप्ति की दृष्टि से कुछ विशेष भावनाओं का अन ग्रहण भी अपेक्षित है। इन्हीं विशिष्ट भावनाओं को बोधिपाक्षिक भावना कहते हैं । इनकी संख्या ३७ है
(१) चार स्मृति प्रस्थान-काय, वेदना, चित्त और धर्मों में अशुभ दुःख, अनित्य और अनात्म रूप तत्त्वों पर चिन्तन करना।
(२) चार सम्यक् प्रधान-उत्पन्न और अनुत्पन्न अकुशलों को दूर करना तथा उत्पन्न न होने देने के कृत्य और अनुत्पन्न एवं उत्पन्न करने और उनको बनाये रखने के कृत्य को सिद्ध करना।
(३) चार ऋद्धिपाव-छन्द, वीर्य, चित्त और मीमांसा । (४) पाँच इन्द्रियां(५) पाँच बल-श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा । (६) सात बोध्यंग-स्मृति, धर्मविचय, वीर्य, प्रीति, प्रलब्धि, समाधि और उपेक्षा ।
(७) आर्याष्टाङ्गिक मार्ग-सम्यक् दृष्टि, संकल्प, वाक्, कर्मान्त, आजीव, व्यायाम (प्रयत्न), स्मृति और समाधि ।
बौद्ध साधना के वे सभी अंग जैन साधना के महाव्रत, समिति, संयम, मशयन, एक भक्त आदि व्रतों में गभित हो जाते हैं। ध्यान का स्वरूप:
ध्यान और साधना परस्पर अनुस्यूत है । दोनों को पृथक् नहीं किया जा सकता। ध्यान का अर्थ हैचिन्तन करना । बुद्धघोष ने उसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की है-"शायत्ति उपनिज्मायतीति शानं अथवा इमिना योगिनो झायन्ती ति" झानं अर्थात् किसी विषय पर चिन्तन करना। इसका दूसरा अर्थ भी किया गया है-"पच्चनीक धम्मे मायेतीति शानं अथवा पच्चनीक धम्मे वहति, गोचरं वा चिन्तेती ति अत्थे।" यहाँ ध्यान का अर्थ अकुशल कर्मों का दहन करना (झापन करना) भी किया गया है ।२
समाधि (सम्+आ+धा) शब्द का प्रयोग चित्त की एकाग्रता के सन्दर्भ में किया गया है। बुद्धघोष ने इस परिभाषा में कुशल शब्द और जोड़ दिया है-कुसलचित्त कम्गता समाधि । यहाँ "सम्मा समाधी ति यथा समाधि, कुसल समाधि" कहकर बुद्धघोष ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि समाधि का सम्बन्ध शुभ भावों को एकाग्र करने से है । समाधि दो प्रकार की होती है-उपचार समाधि और अर्पणा समाधि । उपचार समाधि में नीवरणों का प्रहरण हो जाता है और अर्पणा में ध्यान की प्राप्ति हो जाती है।
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