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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
हुए शत्रु-मित्र में, मान-अपमान में, लाभ-अलाभ में, लोष्ठ-कांचन में समदृष्टिवान् हो जाता है। तदनन्तर वह निर्मल, केवल, शुद्ध, विविक्त और अक्षय परमात्मपद प्राप्त कर लेता है।
सम्यग्दर्शन के बिना साधक चतुर्गति-भ्रमण करता है और कोटि-कोटि वर्षों तक कठोर तपश्चरण करते हुए भी रत्नत्रय रूप बोधि को प्राप्त नहीं करता। सम्यकदर्शन प्राप्त होते ही निःशंकित, निष्कांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृहण, स्थिरीकरण वात्सल्य और प्रभावना ये आठ गुण साधक में प्रगट हो जाते हैं। इनके साथ ही संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा, वात्सल्य आदि जैसे गुण की सरलतापूर्वक आ जाते हैं । इन गुणों के कारण तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष स्वतः समाप्त हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन के अनेक प्रकार से भेद किये गये हैं-निश्चय और व्यवहार; सराग और वीतराग; निसर्गज और अधिगमज; क्षायिक, औपशमिक. और क्षायोपशमिक; आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ और परमावगाढ; आदि । सम्यग्दर्शन अथवा सम्यग्दृष्टि के संदर्भ में जैन साहित्य ने बड़े विस्तार से विवेचन किया है जिसे यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
बौद्धधर्म में सम्यग्दर्शन के ही समानान्तर 'सम्मादिट्ठि' को स्वीकार किया गया है । चतुरार्यसत्यों को समझना ही सम्मादिहि है। उसके बिना निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं । तथागत बुद्ध ने कहा था 'भिक्षुओ! जिस समय आर्य श्रावक दुराचरण को पहिचान लेता है, दुराचरण के मूल कारण को जान लेता है, सदाचरण को पहचान लेता है तब उसकी दृष्टि सम्यक् कहलाती है। बौद्धदर्शन जैनदर्शन के समान आत्मवादी न होते हुए भी किसी आत्मवादी से कम नहीं। उसकी अव्याकृत से अनात्मवाद तक की एक लम्बी यात्रा हुई है। कर्म, पुनर्जन्म और निर्वाण को वह मानता ही है । आत्मा के स्थान पर चित्त, संस्कार, सन्तति, विज्ञान आदि जैसे शब्दों का उल्लेख किया जा सकता है। सम्मादिट्ठि, होने पर साधक संसारिक दुःखों की प्रकृति को जानते हुए सत्काय-दृष्टि आत्मवाद आदि सिद्धान्तों से विरत हो जाता है और इसी से वह समभावी बनता है। मार्गज्ञान और फल समापत्ति प्राप्त हो जाने पर पुद्गल या साधक को 'स्रोतापन्न' कहा जाता है। स्रोतापन्न हो जाने पर इस संसार में वह अधिक से अधिक सात बार जन्म-ग्रहण करता है । वह कभी भी तियंच, नरक, प्रेत, या असुर योनि में उत्पन्न नहीं होता। सम्यग्ज्ञान और पञ्जा
ज्ञान भी आत्मा का अभिन्न गुण है जो मोहादि कर्मों के कारण अभिव्यक्त नहीं हो पाता । पर जैसे ही साधक जीव और अजीव के पार्थक्य को समझने लगता है, उसे सम्यग्ज्ञान हो जाता है। इस विवेक का उदय विशुद्ध भावों पर आधारित है। सम्यग्ज्ञानपूर्वक की गई एक लम्बी दीर्घ तपस्या-साधना का यह फल है। जिस प्रकार सुहागा और नमक के जल से संयुक्त होकर स्वर्ण विशुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार सम्यक्ज्ञान रूपी निर्मल जल से यह जीव भी विशुद्ध हो जाता है।
जैनधर्म में कर्म के क्षय-क्षयोपशमादि के निमित्त से ज्ञान के पांच भेद किये गये हैं-मतिज्ञान, श्रु तज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । योगी साधक ज्ञान की चरम साधना रूप केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञता को प्राप्त करने के लिए ही कठोर तपश्चर्या में जुटे रहते हैं।
बौद्धधर्म में सम्यग्ज्ञान को प्रज्ञा कहा गया है। धर्म के स्वभाव का विशिष्ट ज्ञान प्रज्ञा है-धम्मसमावपरिवेधलक्खणा पञआ। मोहान्धकार का नाश करना उसका कृत्य है। उसकी तीन श्रेणियाँ हैं-सआ, विज्ञआण, और पा । बुद्धघोष ने कहा है कि-एक अबोध बालक, ग्रामीण व्यक्ति और हेरञिक (सराफ) के बीच कार्षापण के मूल्यांकन में जो अन्तर हो सकता है वही अन्तर इन तीनों श्रेणियों में है। प्रज्ञा के ये तीनों सोपान क्रमशः विशुद्ध होते जाते हैं । सजा और विज्ञाण से पा में अधिक वैशिष्टय है।
प्रज्ञा के विभिन्न आधारों पर भेद किये गये हैं। धर्म के स्वभाव के प्रतिबोध स्वरूप से वह एक प्रकार की है । लौकिक और लोकोत्तर के भेद से अथवा साश्रव-अनाश्रव, नाम-रूप, सौमनस्य-उपेक्षा, दर्शन-भावना के भेद से दो प्रकार की है। चिंता. श्रुत और भावना, अथवा आय, अपाय और उपायकौशल्य अथवा परित्र, महद्गत और अप्रमाण के भेद से प्रज्ञा तीन प्रकार की है। चार आर्यसत्यों के ज्ञान और चार प्रतिसंभिदा के ज्ञान के भेद से प्रज्ञा चार प्रकार की है।
स्कन्ध, आयतन, धातु, इन्द्रिय, सत्य, प्रतीत्यसमुत्पाद आदि प्रज्ञा की धर्म भूमि है। शीलविशुद्धि और चित्तविशुद्धि ये दो विशुद्धियाँ मूल हैं। दृष्टिविशुद्धि, कांक्षावितरणविशुद्धि, मार्गामार्गदर्शनविशुद्धि, प्रतिपदाज्ञानदर्शन, विशुद्धि और ज्ञानदर्शनविशुद्धि ये पाँच विशुद्धियाँ शरीर हैं। इसलिए प्रज्ञावान् व्यक्ति को उन भूमिभूत धर्मों में उदग्रहण (अभ्यास) करते हुए पंच विशुद्धियों की प्राप्ति करनी चाहिए। इससे साधक सन्मार्ग और असन्मार्ग का भेदविज्ञान पा लेता है।
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