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________________ ४३२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड बन और निरालंबन । निरालम्बन ही निर्विकल्पक समाधि है । यही शुक्लध्यान और मोक्ष है । बौद्धधर्म में निर्दिष्ट चार किंवा पाँच प्रकार के ध्यानों की तुलना यहाँ की जा सकती है। ध्यान का तात्पर्य है-चित्तवृत्ति को केन्द्रित करना । इसका शुभ और अशुभ दोनों कार्यों में उपयोग होता है। आर्त और रौद्र ध्यान अशुम और अप्रशस्त कार्यों की प्राप्ति के लिए किये जाते हैं और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान शुभ और प्रशस्त फल की प्राप्ति में कारण होते हैं। मन को बहिरात्मा से मोड़कर अन्तरात्मा और परमात्मा की ओर ले जाना धर्मध्यान और शुक्लध्यान का कार्य है। सोमदेव ने अप्रशस्त ध्यानों को लौकिक और प्रशस्त ध्यानों को लोकोत्तर कहा है। १-२: आर्त और रौद्र ध्यान अप्रिय वस्तु को दूर करने का ध्यान, प्रिय वस्तु के वियुक्त होने पर उसकी पुनः प्राप्ति का ध्यान, वेदना के कारण क्रन्दन आदि तथा विषय सुखों की आकांक्षा आर्तध्यान के मूल कारण हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह आदि के संरक्षण के कारण रौद्र ध्यान होता है । ये दोनों ध्यान अप्रशस्त हैं और संसार के कारण हैं । भौतिक साधनों की प्राप्ति के लिए इन ध्यानों में कायोत्सर्ग किया जाता है । मिथ्यात्व, कषाय, दुराशय आदि विकारजन्य होने के कारण ये ध्यान असमीचीन हैं । आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, उच्चाटन आदि अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र कार्य करने की क्षमता साधकों में होती है । परन्तु ऐहिक फल वाले ये ध्यान कुमार्ग और कुध्यान के अन्तर्गत आते हैं। ध्यान का माहात्म्य इनसे अवश्य प्रगट होता है ।२५ ३. धर्मध्यान . साधना में विशेषतः धर्मध्यान और शुक्लध्यान आते हैं। धर्मध्यान में उत्तम क्षमादि दश धर्मों का यथाविधि ध्यान किया जाता है । वह चार प्रकार का है-(१) आज्ञाविचय, (२) अपायविचय, (३) विपाकविचय, और (४) संस्थानविचय । विचय का अर्थ है विवेक अथवा विचारणा । १. आज्ञाविचय-आप्त के वचनों का श्रद्धान करके सूक्ष्म चिन्तनपूर्वक पदार्थों का निश्चय करना-कराना आज्ञाविचय है। इससे वीतरागता की प्राप्ति होती है। २. अपायविचय-जिनोक्त सन्मार्ग के अपाय का चिन्तन करना अथवा कुमार्ग में जाने वाले ये प्राणी सन्मार्ग कैसे प्राप्त करेंगे, इस पर विचार करना अपायविचय है। इससे राग-द्वषादि की विनिवृत्ति होती है। ३. विपाकविषय-ज्ञानावरणादि कर्मों के फलानुभव का चिन्तन करना विपाक विचय है। ४. संस्थानविचय-लोक, नाड़ी आदि के स्वरूप पर विचार करना संस्थानविचय है । यह धर्मध्यान सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है और शुक्लध्यान के पूर्व होता है । आत्मकल्याण के क्षेत्र में इसका विशेष महत्त्व है । धर्मध्यान के चारों प्रकार ध्येय के विषय हैं जिन पर चित्त को एकाग्र किया जाता है ।२६ ४. शुक्लध्यान जैसे मैल दूर हो जाने से वस्त्र निर्मल और सफेद हो जाता है उसी प्रकार शुक्लध्यान में आत्मपरिणति बिलकुल विशुद्ध और निर्मल हो जाती है। इसके चार भेद हैं-१. पृथक्त्ववितर्क २. एकत्ववितर्क, ३. सूक्ष्मकिया प्रतिपाति, और ४. व्युपरतक्रियानिवृति । शुक्लध्यान को समझने के लिए कुछ पारिभाषिक शब्दों को समझना आवश्यक है। यहाँ 'वितक' का अर्थ है श्र तज्ञान । द्रव्य अथवा पर्याय, शब्द तथा मन, वचन, काय के परिवर्तन को 'वीचार' कहते हैं । द्रव्य को छोड़कर पर्याय को और पर्याय को छोड़कर द्रव्य को ध्यान का विषय बनाना 'अर्थसंक्रान्ति' है। किसी एक श्र तवचन का ध्यान करते-करते वचनान्तर में पहुँच जाना और उसे छोड़कर अन्य का ध्यान करना 'व्यञ्जनसंक्रान्ति' है । काय योग को छोड़कर मनोयोग या वचनयोग का अवलम्बन लेना तथा उन्हें छोड़कर काययोग का अवलम्बन लेना 'योगसंक्रान्ति' है। निर्जन प्रदेश में चित्तवृत्ति को स्थिरकर, शरीर क्रियाओं का निग्रहकर, मोह प्रकृतियों का उपशम या क्षय करने वाला ध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान कहलाता है। इसमें ध्याता क्षमाशील हो, बाह्य-आभ्यन्तर द्रव्य-पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्य से युक्त होकर अर्थ और व्यञ्जन तथा मन-वचन-काय की पृथक्-पृथक् संक्रांति करता है। करता हुआकृत्ववितकवीचात को स्थि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210607
Book TitleJain aur Bauddh Sadhna Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size2 MB
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