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५. परमार्थसत् - अकल्पित
६. सस्वभाव
७. वस्तु
८. असाधारण
९. संकेत स्मरणानपेक्ष प्रतिपत्तिकत्व
१०. सन्निधान - असन्निधान से स्फुट या अस्फुट रूप प्रतिभास भेद का जनक
जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
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यहाँ यह द्रष्टव्य है कि दिङ्नाग और धर्मकीर्ति ने प्रमाण को द्वैविध्य मानकर प्रमेय को भी द्वैविध्य माना है । इनमें स्वलक्षण प्रत्यक्षगम्य है और सामान्यलक्षण अनुमानगम्य है। अनुमान परोक्ष के अन्तर्गत् आता है ।
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५. संवृति सत् - कल्पित ६. निःस्वभाव
जैनदर्शन प्रमेय भी एक ही मानता है— द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु । वह किसी को स्पष्ट प्रतिभासित होता है और किसी को अस्पष्ट । यह ज्ञाता की शक्ति पर अवलम्बित है । अतः यहाँ भी प्रमेय की प्रतीति प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों रूप से होती है। जैनों का प्रत्यक्ष बौद्धों का स्वलक्षण है और जैनों का परोक्ष बौद्धों का सामान्य है । दोनों मान्यताओं में अन्तर यह है
७. अवस्तु
८. साधारण
९. संकेत स्मरण सापेक्षप्रतिपत्तिकत्व १०. सन्निधान-असन्निधान से स्फुट या अस्फुट रूप प्रतिभास भेद का अजनक
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जैन दर्शन वस्तु को सामान्य विशेषात्मक मानता है, जबकि बौद्धदर्शन उसका निषेध करता है । जैनदर्शन की दृष्टि में वस्तु का स्वरूप और पररूप, दोनों सापेक्षिक और वास्तविक हैं, जबकि बौद्धों की दृष्टि में दोनों का अस्तित्व होते हुए भी पररूप कल्पित और वासनाजन्य है ।
कल्पित और वासनाजन्य होते हुए भी बौद्धदर्शन की दृष्टि में पररूप अर्थ से संबद्ध है, पर जैनदर्शन उसे इस स्थिति में अर्थ से कथंचित् असंबद्ध मानता है ।
बौद्धों ने स्वलक्षण और सामान्यलक्षण के प्रतिपादन में क्षणभंगवाद की प्रस्थापना की है । जैन भी क्षण-भंगवाद मानते हैं, पर पर्याय को दृष्टि से । यह पर्याय उत्पाद और व्यय का प्रतीक है ।
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जैनदर्शन का ध्रौव्य बौद्धधर्म का 'सन्तान' कहा जा सकता है । ध्रौव्य में उत्पाद-व्यय के माध्यम से न तो शाश्वतवाद और उच्छेदवाद का प्रसंग उपस्थित होता है और न उसका दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्य रूप से परिणमन होता है। 'सन्तान' भी अपने नियत पूर्वक्षण नियत उत्तरक्षण के साथ कार्यकारण भाव रूप से सम्बद्ध रहते हैं ।' अन्तर यह है
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इस "संतान" को बौद्धदर्शन ने पंक्ति और सेना के समान मृषा और व्यवहारतः कल्पित माना है, पर जैनदर्शन ध्रौव्य को परमार्थ सत् मानता है । वह उसे तद्रव्यत्व का नियामक प्रस्थापित करता है । हर पर्याय अपने स्वरूपास्तित्व में रहती है । वह कभी न तो द्रव्यान्तर में परिणत हो सकती है और न विलीन हो सकती है ।
१. यस्मिन्नेव तु सन्ताने, अहिता कर्मवासना ।
फलं तत्रैव संघत्ते, कार्पासे रक्तता यथा ॥ तत्त्वसंग्रह पञ्जिका, पृ० १८२ में उद्धृत | २. सन्तानः समुदायश्च पंक्तिसेनादिवन्मृषा — बोधिचर्यावतार, पृ० ३३४ ।
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