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भागचंद जैन भास्कर
गोयान और उत्तर में उत्तरकुरु की विजययात्रा के लिए प्रस्थान करता है । चक्रवर्ती मान्धाता ने अपनी विजययात्रा का क्रम यही रखा था। वे संसार-विजय करने के बाद अपने कुछ साथियों के साथ जम्बूद्वीप में आ बसे । उनके पूर्वविदेह से आने वाले साथी जिस प्रदेश में बसे, उसका नाम विदेह राष्ट्र पड़ गया। इसी तरह उत्तरकुरु और अपरगोयान से आने वाले लोग क्रमशः कुरु और अपरान्त राष्ट्र में बस गये। पूर्व विदेह को लोगों ने तुर्किस्तान से पहिचान करने का प्रयत्न किया है। उत्तरकुरु को साइबेरिया बताया है तथा अपरगोयान को पश्चिमी तुर्किस्तान से मिलान किया है।
बुद्धकालीन जम्बूद्वीप की दक्षिणी सीमा आन्ध्र, तमिल और लंका तक चली जाती है । पश्चिमी-सीमा में भृगुकच्छ ( भडोंच ), सोपारा ( सुप्पारक ) और सिन्धु-सोवीर देश आते हैं। उत्तर-पश्चिमी सीमा में गन्धार और कम्बोज अर्थात् अफगानिस्तान और काश्मीर का काफी भाग आता है। पूर्व और दक्षिण पूर्व में वंग, सुम्ह, उत्कल और कलिंग समाहित होता है। चीनी लेखकों ने इस जम्बद्वीप के आकार को उत्तर में चौड़ा और दक्षिण में सकरा बताया है।
उत्तरकुरु के सन्दर्भ में जैन साहित्य के समान बौद्ध साहित्य में भी पौराणिक विवरण मिलता है । दीघनिकाय के अनुसार उत्तरकुरु के व्यक्ति व्यक्तिगत संपत्ति नहीं रखते और न उनकी अपनी अलग-अलग पत्नियों होती हैं। उन्हें अपने जीवन-निर्वाह के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता । यहाँ अनाज स्वयं उग जाता है । यहाँ का जीवन नितान्त सुखमय है। यहाँ के राजा का नाम कुबेर तथा राजधानी का नाम विषाण है। प्रधान नगर हैं-आटानाटा, कुसीनाटा, नाटापरिया, परकुसीनाटा, कपीवल जनोध, नवननिया, अम्बर और अलकमन्दा । यहाँ के निवासी यक्ष कहे गये हैं। यहाँ कल्पवृक्ष हैं। लोग निर्लोभी हैं, आयु नियत है। बुद्धघोष तो यहाँ के लोगों को उनके प्राकृतिक शील के कारण सर्वोत्कृष्ट मानते हैं।
उत्तरकुरु का यह पौराणिक वर्णन होते हुए भी कुछ उदाहरण ऐसे मिलते हैं, जो उत्तरकुरु को भारतीय प्रदेश के समीप अवस्थित सिद्ध करते हैं । विनयपिटक के अनुसार भगवान् बुद्ध उत्तरकुरु गये । अल्प भिक्षु भी उनके साथ थे । राजगृहवासी जोतिक की पत्नी भी उत्तरकुरु की थी।
विसुद्धिमग्ग में उत्तरकुरु को सुमेरु पर्वत के उत्तर में बताया गया है और उसका विस्तार आठ हजार योजन है और समुद्र से घिरा है। महाभारत के भीष्मपर्व में भी उत्तरकुरु की यही अवस्थिति है।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी उत्तरकुरु को मेरुपर्वत के उत्तर और नील पर्वत के दक्षिण में बताया गया है। इसका विस्तार ११८४२ योजन व दो कला अधिक है । जम्बूवृक्षों, पर्वतों और नदियों का वर्णन अत्यन्त पौराणिक है। देवकुरु की भी अवस्थिति का वर्णन यहीं उपलब्ध है। इसका वर्णन योगभूमि जैसा है। मनुष्य तीन कोश ऊँचे और उत्तर लक्षणों से युक्त होते हैं।
___ जैन साहित्य में विदेह, पूर्वविदेह और अपर विदेह का वर्णन मिलता है। बौद्ध साहित्य अपरविदेह के स्थान पर अपरगोयान का उल्लेख करता है। विदेह और पूर्वविदेह का वर्णन तो है ही।
१. महाबोधिवंस, पृ०७३-७४ ।
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