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जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन
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अहेतुक चित्तों में लोभ, द्वेष, मोह अकुशल हेतुक हैं तथा अलोभ, अद्वेष और अमोह कुशल अथवा अव्याकृत हेतुक हैं । ये अहेतुक चित्त अकुशल विपाक, कुशल विपाक तथा क्रिया के भेद से तीन प्रकार के हैं । अकुशल और अहेतुक चित्त समवेत रूप में अशोभन चित्त कहलाते हैं । इ आलम्बन आदि अनिष्ट रहता है, अतः अशोभन चित्त कहलाते हैं । इसलिए इनकी तुलना अशुभोपयोग अथवा मोहनीय कर्म से कर सकते हैं ।
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क्लेशादि कर्मों से विशुद्ध होने के कारण चित्त शोभन चित्त कहलाता है यहाँ यह द्रष्टव्य है कि यह शोभन अशोभन नाम वस्तुतः चित्त का नहीं, चैतसिक का है । चित्त का काम तो मात्र आलम्बन को जानने का है। अतः चित्त का शोभन अशोभन होना चैतसिकों के शोभन - अशोभन होने पर निर्भर करता है । उसे हम आत्मा की विशुद्ध अथवा मूल अवस्था कह सकते हैं, जो हमारे शुभाशुभ भावों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है ।
शोभन चित्त जैनधर्म की शुभोपयोगावस्था के सूचक हैं । देव, गुरु, शास्त्र की पूजा, दान, सदाचार और उपवासादिक तप में तीन आत्मा शुभोपयोगात्ताक हैं । 'शुभोपयोग पुण्य कर्म के आश्रव का कारण है । पाँच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का पालन करने वाला शुभोपयोगी संयमी तपस्वी सरागचरित्र वाला होता है । क्रियाचित्तअर्हतु की सन्तान में होते हैं । अतः वे विपाक (फल) नहीं देते । किन्तु यदि वे विपाकोन्मुख हों, तो कुशलचित्तों की तरह उनका विपाक असीमित होता है । जैनदर्शन में भी अर्हत् के कर्म विपाक देनेवाले नहीं होते हैं । कुशल चित्त ध्यानचित्त कहलाते हैं । प्रथम ध्यान से लेकर चतुर्थं ध्यान पर्यन्त सुखवेदना तथा पंचम ध्यान में उपेक्षा वेदना होती है । जैनधर्म का शुभोपयोगी तपस्वी भी इसी प्रकार के ध्यान से युक्त होता है । दोनों के बीच सूक्ष्म अन्तर को हम ध्यान के प्रकरण में स्पष्ट करेंगे ।
कर्मवाद
जैन-बौद्ध धर्म कर्मवादी हैं । मिथ्यादर्शनादि परिणामों से संयुक्त होकर जीव के द्वारा जिनका उपार्जन किया जाता है, वे कर्म कहलाते हैं। दोनों धर्मों की दृष्टि से यही कर्म संसरण का कारण होता है ।
बौद्धधर्म में कर्म को चैतसिक कहा गया है और वह चित्त के आश्रित रहता है। जैनधर्म में भी कर्म आत्मा के आश्रय से उत्पन्न माने गये हैं । जैनधर्म में त्रियोग ( मन, वचन, काय ) को
श्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जरा का मूल कारण माना गया है । बौद्धधर्म में भी कर्म तीन प्रकार के हैं - चेतनाकर्म ( मानसिक कर्म ) और चेतयित्वा कर्म ( कायिक और वाचिक कर्म ) । इन्हें त्रिदण्ड कहा गया है । इनमें से मनोदण्ड हीनतम और सावद्यतम कर्म माना गया है। जैनधर्म की भी यही मान्यता है । यहाँ कर्म के तीन रूप बताये गये हैं-कृत, कारित और अनुमोदित । इनमें यद्यपि तीनों कर्म समान दोषोत्पादक हैं, पर कृत कर्म अपेक्षाकृत अधिक दोषी माना जाता है, यदि उसके साथ मन का सम्बन्ध है ।
१. प्रवचनसार, ६९ ।
२. द्रव्यसंग्रह, ४५ ।
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