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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
जैन-इतिहास के अध्ययन के स्रोत
और उपयोगी कही जा सकती हैं। इन स्थविरावलियों और पट्टावलियों (अ) जैन आगम, आगमिक व्याख्याओं एवं पुराणों के कथानक में न केवल आचार्य-परम्परा का निर्देश होता है, अपितु उसमें कुछ - पुराणों के अतिरिक्त आगमिक व्याख्याओं विशेषत: नियुक्ति, काल्पनिक बातों को छोड़कर अनेक आचार्यों के व्यक्तित्व व कृतित्व के भाष्यों और चूर्णियों में भी अनेक ऐतिहासिक कथानक संकलित हैं किन्तु संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। हिमवंत स्थविरावली और उनमें भी वही कठिनाई है जो जैन-पुराणों में है। ऐतिहासिक कथानक और नन्दीसंघ पट्टावली जिनकी प्रामाणिकता के संबंध में कुछ प्रश्नचिह्न हैं काल्पनिक कथानक दोनों एक दूसरे से इतने मिश्रित हो गये हैं, उन्हें फिर भी वे जैनधर्म के इतिहास को एक नवीन दिशा देने की दृष्टि से अलग-अलग करने में अनेक कठिनाईयाँ है। सत्य तो यह है कि एक महत्त्वपूर्ण हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आज भी ही कथानक में ऐतिहासिक और काल्पनिक दोनों ही तत्त्व समाहित हैं शताधिक ऐसी पट्टावलियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनके इतिहास-लेखन और उन्हें एक दूसरे से पृथक् करना एक जटिल समस्या है। फिर भी महत्त्व को हम नहीं नकार सकते। उनका ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन . उनमें जो ऐतिहासिक सामग्री है उसका प्राचीन भारतीय इतिहास की आवश्यक है। रचना में उपयोग महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है। आगमिक व्याख्याओं में अधिकांश कथानक व्रत-पालन अथवा उसके भंग के कारण हुए (ई) प्रबन्ध ग्रन्थ दुष्परिणामों को अथवा किसी नियम के संबंध में उत्पन्न हुई आपवादिक पट्टावलियों के अतिरिक्त अनेक प्रबंध भी (१२वीं से १५वीं स्थिति को स्पष्ट करने के लिए ही दिये गए हैं। ऐसे कथानकों में शती तक) लिखे गये जिनमें कुछ विशिष्ट जैनाचार्यों के कथानक चाणक्य-कथानक, भद्रबाहु-कथा, कालक-कथा, भद्रबाहु द्वितीय और संकलित हैं। इनमें हेमचन्द्रकृत परिशिष्टपर्व, प्रभाचन्द्रकृत वाराहमिहिर आदि के कथानक ऐसे हैं जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। प्रभावकचरित, मेरुतुंगकृत प्रबंधचिन्तामणि, राजशेखर कृत प्रबंधकोश मरण-विभक्ति तथा भगवती-आराधना की मूल कथाओं और उन आदि प्रमुख हैं। इन प्रबंधों के कथानकों में भी अनेक स्थलों पर आचार्यों कथाओं को लेकर बने बृहद्आराधना कथाकोश आदि का भारतीय के चरित में अलौकिकता का मिश्रण है। आज उनकी सत्यता का हमारे इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है।
पास कोई आधार नहीं है फिर भी इन प्रबन्धों में अनेक ऐतिहासिक
तथ्य निहित हैं। (ब) ऐतिहासिक चरित काव्य एवं स्थविरावलियाँ
इसी प्रकार परवर्ती काल में अनेक ऐतिहासिक चरित-काव्य (एफ) चैत्यपरिपाटियाँ . भी लिखे गये हैं, जैसे-त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित, कुमारपाल चरित, स्थविरावलियों, पट्टावलियों, प्रबंधों के अतिरिक्त जैन-इतिहास कुमारपालभूपाल चरित आदि जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे ही जैन- की महत्त्वपूर्ण विद्या चैत्य-परिपाटियाँ या यात्रा विवरण हैं जिनमें विभिन्न आगमों विशेष रूप से कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में जो तीर्थों के निर्देश तो हैं ही, उनके संबंध में अनेक ऐतिहासिक सत्य भी स्थविरावलियाँ दी गयी है वे भी ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व वर्णित हैं। मरुगुर्जर में हमें सैकड़ों चैत्य-परिपाटियाँ (१६वीं से १९वीं की है। उनमें दिये गये अनेक आचार्यों के नाम तथा उनके गण, कुल, शती तक) उपलब्ध होती हैं। जिनमें आचार्यों ने अपने यात्रा-विवरणों को शाखा आदि के उल्लेख मथुरा के अभिलेखों में मिलने से उनका संकलित किया है। इसी से मिलती-जुलती एक विधा तीर्थमालाएँ है। यह ऐतिहासिक महत्त्व स्पष्ट है।
भी चैत्य-परिपाटी और यात्रा-विवरणों का ही एक रूप है। इसमें लेखक (स) ग्रन्थ-प्रशस्तियाँ
विभिन्न तीर्थों का विवरण देते हुए तीर्थ के अधिनायक की स्तुति करता ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से ग्रंथ-प्रशस्तियों का भी है। यद्यपि परवर्ती काल की तीर्थमालाओं में मुख्य रूप से तीर्थनायक की अत्यन्त महत्त्व होता है। उनमें लेखक न केवल अपनी गुरु-परम्परा का प्रतिमा के सौन्दर्य-वर्णन को प्रमुखता मिली है किन्तु प्राचीन तीर्थमालाएँ उल्लेख करता हैं, अपितु अनेक सूचनाएँ भी देता है, जैसे यह ग्रंथ किसके मुख्य रूप से नगर, राजा और वहाँ के सांस्कृतिक परिवेश का भी विवरण काल में, किसकी प्रेरणा से और कहाँ लिखा गया। यह ठीक है कि ग्रंथ देते हैं और इस दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करती प्रशस्तियों में विस्तृत जीवन परिचय नहीं मिलता किन्तु उनमें संकेत रूप हैं। अधिकांश तीर्थमालाएँ १५वीं से १८-१९वीं शताब्दी के मध्य की में जो सूचना मिलती है, वह इतिहास-लेखन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का हैं और इनकी भाषा मुख्यत: मरु-गुर्जर है किन्तु कुछ तीर्थमालाएँ प्राचीन निर्वहण करती है।
भी हैं। इसी क्रम में जैनाचार्यों ने अनेक नगर-वर्णन भी लिखे हैं, जैसे
नगरकोट कांगडा वर्णन। नगर-वर्णनों संबंधी इन रचनाओं में न केवल (द) पट्टावलियाँ
नगर का नाम है अपितु उनकी विशेषताएँ तथा उन नगरों से संबंधित जैन-परम्परा में अनेक पट्टावलियाँ (गुरु-शिष्य परम्परा) भी उस काल के अनेक ऐतिहासिक वर्णन भी निहित हैं। चैत्य-परिपाटियों लिखी गयी हैं। उनमें आचार्यों के संबंध में उल्लेखित कुछ चमत्कारों को और तीर्थमालाओं की एक विशेषता यह होती है कि वे उस नगर या छोड़ दें तो शेष सूचनाएँ जैन-संघ के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तीर्थ के संबंध में पूरा विवरण देती हैं।
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