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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड
वनौषधियों (जड़ी-बूटियों) से चिकित्सा की जाती थी और इसके आचार्य यत्र-तत्र मिल जाते थे। चिकित्सा की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित थीं। इनमें पंचकर्म, वमन, विरेचन आदि का भी विपुल प्रचलन था। रसायनों का सेवन कराकर भी चिकित्सा की जाती थी।
चिकित्सक को प्राणाचार्य कहा जाता था। पशुचिकित्सक भी हुआ करते थे। निष्णात वैद्य को 'दष्टपाठी' (प्रत्यक्षकर्माभ्यास द्वारा जिसने वास्तविक अध्ययन किया है) कहा गया है ।
'निशीथचूणि' में उनके शास्त्रों का नामतः उल्लेख मिलता है। तत्कालीन अनेक वैद्यों के नाम का भी उल्लेख आगम-ग्रन्थों में मिलता है । 'विपाकसूत्र' में विजयनगर के धन्वन्तरि नामक चिकित्सक का वर्णन है।
रोगों की उत्पत्ति वात, पित्त, कफ और सन्निपात से बतायी गयी है। रोग की उत्पत्ति के नौ कारण बताये गये हैं-अत्यन्त भोजन, अहितकर भोजन, अतिनिद्रा, अतिजागरण, पुरीष का निरोध, मूत्र का निरोध, मार्गगमन, भोजन की अनियमितता, काम विकार ।° पुरीष के वेग को रोकने से मरण, मूत्र-वेग रोकने से दृष्टिहानि और वमन के वेग को रोकने से कुष्ठरोग की उत्पत्ति होती है।"
__'आचारांग सूत्र' में १६ रोगों का उल्लेख है-गंजी (गंडमाला), कुष्ठ, राजयक्ष्मा, अपस्मार, काणिय' (काण्य, अक्षिरोग), झिमिय (जड़ता), कुणिय (हीनांगता), खुज्जिय (कुबड़ापन), उदररोग, मूकत्व, सूणीय (शोथ), गिलासणि (भस्मकरोग), बेवई (कम्पन), पीठसंधि (पंगुत्व), सिलीवय (श्लीपद) और मधुमेह ।१२
इसी प्रकार आगम साहित्य में व्याधियों की औषधि-चिकित्सा और शल्यचिकित्सा का भी वर्णन मिलता है। सर्पकीट आदि के विषों की चिकित्सा भी वर्णित है। सुवर्ण को उत्तम विषनाषक माना गया है । गंडमाला, अर्श, भगंदर, व्रण, आघात या आगन्तुजव्रण आदि के शल्यकर्म और सीवन आदि का वर्णन भी है।
मानसिक रोगों और भूतावेश-जन्य रोगों में भौतिक चिकित्सा का भी उल्लेख मिलता है।
जैन आगम-ग्रन्थों में आरोग्यशालाओं (तेच्छियसाल=चिकित्सा शाला) का उल्लेख मिलता है। वहाँ वेतनभोगी चिकित्सक, परिचारक आदि रखे जाते थे ।
वास्तव में सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य में उपलब्ध आयुर्वेदीय सन्दर्भो का संकलन और विश्लेषण किया जाना अपेक्षित है।
जैन-परम्परा जैनधर्म के मूल प्रवर्तक तीर्थकर माने जाते हैं। कालक्रम से ये चौबीस हुए-ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनंदन, सुमति, पद्भप्रभ, सुपार्श्व, चंदप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुन्थु, अरह, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ, वर्धमान या महावीर।
इनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ और अन्तिम महावीर हुए। महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् से ४७० वर्ष पूर्व, शक संवत् से ६०५ वर्ष पाँच माह पूर्व तथा ईसवी सन् से ५२७ वर्ष पूर्व हुआ था । वर्तमान प्रचलित जैन धर्म की
१. उत्तराध्ययन, २०. २२; सुखबोध, पत्र २६६. ३. बृहद्वति, पत्र ११. ५. वही, पत्र ४६२. ७. निशीथचूणि, ११. ३४३६. ६. आवश्यकचूर्णि, पृ० ३८५. ११. बृहत्कल्पभाष्य, ३. ४३८०. १३. ज्ञातृधर्मकथा, १३, पृ० १४३.
२. उत्तराध्ययन, १५. ८. ४. वही, पत्र ४७५. ६. निशीथचूणि, ७. १७५७.
८. विपाकसूत्र ७, पृ० ४१. १०. स्थानांगसूत्र, ६. ६६७. १२. आचारांगसत्र, ६.१.१७३.
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