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________________ जैन आचारसंहिता ४०७ are Int प्रवृति में परिवर्तन नहीं करते हैं । निराबरण ज्ञान होने पर भी रात्रि में आहार नहीं लेते हैं, रात्रि में गमनागमन की क्रियाओं को नहीं करते हैं। इसीलिए आगम में कहा गया है कि साधना में केवल निश्चय नहीं व्यवहार भी आवश्यक है। अध्यात्म का मुख्य रूप से कथन करने वाले उपनिषदों में भी व्यवहार को उपेक्षणीय नहीं बताया है और कहा है कि कर्मों (व्यवहारों) की उपेक्षा करके ज्ञान सम्भव नहीं है । आचार से शून्य होकर कोई भी व्यक्ति ज्ञान की वृद्धि नहीं कर सकता है। ___ जैन परम्परा का दृष्टिकोण पहले बताया ही जा चुका है कि आचार उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना ज्ञान । आगम में कहा गया है कि चलने, उठने, बैठने, खाने-पीने की क्रिया जो करो, वह यत्न एवं विवेक पूर्वक करो। यत्नपूर्वक कार्य करने से पापबन्ध नहीं होगा । इसका अभिप्राय यह कि बन्ध तभी होता है जब क्रिया में राग-द्वेष होता है, आसक्ति होती है। आगमों में आचार का व्यावहारिक दृष्टिकोण यह है कि संयम से रहो, जितना सम्भव हो सके अपने आपकी प्रवृत्ति को संकुचित वनाओ, आवश्यकता पड़ने पर कार्य किया जाये, निष्प्रयोजन इधर-उधर भटकना नहीं चाहिए । इसके लिये ईर्यासमिति आदि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का विधान किया गया हैं। इन समिति और गुप्ति का आशय यह है कि आवश्यकता होने पर विवेकपूर्वक गति की जाये, भोजन की गवेषणा (भिक्षाचरी) की जाये, वस्त्र पात्र आदि ग्रहण किये जायें, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का गोपन किया जाये । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि महाव्रत, तप एवं इनकी सुरक्षा तथा अभ्यास के लिए अनेक नियमोपनियम बताये गये हैं। यह सब आचार का व्यावहारिक पक्ष है। इन सब का लक्ष्य यह है कि बाहर से हटकर, विभाव से हटकर अन्तर् में, स्वभाव में आना, स्व-स्वरूप में रमण करना। इसके लिए जो भी क्रिया सहायक बनती है, वह सम्यक है, उसे व्यावहारिक दृष्टिकोण से और तात्त्विक दृष्टि से चारित्र-आचार माना जायेगा और वही सम्यक् है । जैन परम्परा में आचार को मात्र क्रियाकाण्ड या प्रदर्शन न मानकर आत्म-विकास का दर्शन कहा है और अपेक्षा भेद से उसके भेद करते हुए भी उन सब में आत्म-दर्शन, ज्ञान और रमणता को मुख्य माना है। पात्र की अपेक्षा आचार के भेद जैन आगमों में आचार का महत्त्व बतलाने के लिए उसे धर्म कहा है-'चारित्तं धम्मो'-- अर्थात् चारित्र ही धर्म है। और चारित्र क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा है"असुहादो विणवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं" अशुभ कर्मों से निवृत्त होना और शुभ कर्मों में प्रवृत्त होना चारित्र कहलाता है। अशुभ में प्रवृत्ति के कारण हैं-राग-द्वेष । जब तक राग-द्वेष की परम्परा चलती रहती है तब तक शुभ प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। जैन-धर्म में राग-द्वेष प्रवृत्तियों के निवारणार्थ आचार को दो भागों में विभाजित किया है-साधु-आचार और श्रावकाचार । साधुआचार साक्षात् मोक्ष का मार्ग है और श्रावकाचार परम्परा से मोक्ष का कारण है । साधु का एक मात्र लक्ष्य आत्मोद्धार करना है। वह लोक, कुटुम्ब आदि पर पदार्थों से ही नहीं, लेकिन अपनी साधना में सहायक शरीर से भी निस्पृह होकर साधना में लग जाता है। साधु ही अहिंसा का उत्कृष्टतया पालन कर सकता है श्रावक नहीं। क्योंकि साधु प्राणिमात्र से मैत्री भाव रखकर निरंतर रागद्वेषमयी प्रवृत्तियों के उन्मूलन में तत्पर रहता है। ज्ञान, ध्यान, तप आदि में अहनिश रत रह कर उत्तरोत्तर रत्नत्रय प्राप्ति के लिए सजग रहता है और आत्मा में विद्यमान अप्रकट अनन्त शक्तियों का विकास करना ही साधु का एकमात्र लक्ष्य होता है। संक्षेप में साधु आचार व्यक्ति को वीतरागी बनाने एवं प्राकृतिक जीवन जीने के लिए स्वावलम्बी बनने की प्रवत्ति है। 19 या e تعمیعے عیدمعرفة هههه متهعهه یه به هم می معه ارومرو علم کی Janumaamhindime امع تلك SNMENT MIND आचामप्रवभिनयाद श्रीआनन्दन्थश्राआनन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210590
Book TitleJain Achar Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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