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जैन आचारसंहिता
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न यह प्रतिपादित किया है कि आचार के सामने विचार-ज्ञान का महत्त्व नहीं है। भगवान महावीर ने स्पष्ट उद्घोषणा की कि-मुक्ति के लिए ज्ञान और क्रिया-विचार और आचार दोनों आवश्यक हैं।' विचार का महत्त्व, उपयोगिता आचार द्वारा प्रगट होती है और आचार में ओज ज्ञान-विचार द्वारा प्राप्त होता है। विचार के आधार हैं-सम्यक्-दर्शन और सम्यक-ज्ञान तथा आचार की भूमिका है—सम्यक् चारित्र यानी जो दर्शन और ज्ञान से जाना, समझा, अनुभूति की उसे आचरण के द्वारा मूर्त रूप देना । इस प्रकार ज्ञान और क्रिया के समन्वित रूप द्वारा साधक बन्धन से पूर्ण मुक्त हो सकता है । ज्ञान जब तक विचार-चिन्तन तक सीमित रहता है, तब तक साधक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता है और क्रिया-आचार का बिना ज्ञान के पालन हो तो लक्ष्य को नहीं देख पाता है, इधर-उधर उलझ जाता है। अतः जब ज्ञान आचार में उतरता है और आचार ज्ञान की दृष्टि लेकर गति करता है तब साधक को साध्यसिद्धि में सफलता प्राप्त होती है।
आचार का स्वरूप जब यह निश्चित है कि साध्य-प्राप्ति के लिए ज्ञान और क्रिया मुख्य साधन हैं तब उनके स्वरूप को समझना आवश्यक है । ज्ञान का अर्थ है-वस्तु स्वरूप को देखना, जानना, समझना और उसका चिन्तन-मनन करना। ज्ञान की प्रवृत्ति द्विमुखी है, उससे स्व का भी ज्ञान होता है और पर-स्वरूपावबोध होता है। यानी ज्ञान का अर्थ हुआ आत्मा का बोध रूप व्यापार और उस ज्ञान को आचरण में उतारने एवं व्यवहार में लाने की प्रक्रिया को आचार कहते हैं। जो कुछ जाना और समझा उसी के अनुरूप व्यवहार करना अथवा उसके अनुसार अपने जीवन को ढालना आचार है। निश्चय दृष्टि से आचार का अर्थ होगा 'स्व' के द्वारा 'स्व' और 'पर स्वरूप' का यथार्थ बोध करके 'पर' से मुक्त होकर 'स्व' में स्थित हो जाना। यानी विचार के अनुरूप हो जाना। इस स्थिति में विचार और आचार में कोई भेद परिलक्षित नहीं होता है।
आचार के भेद आगमों में आचार के विभिन्न दृष्टियों से अनेक भेद किये गये हैं, जैसे श्रुतधर्म और चारित्रधर्म । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तथा ज्ञान-आचार, दर्शन-आचार, चारित्रआचार, तप-आचार, वीर्य-आचार । इन दो, तीन अथवा पाँच भेदों में संख्या भेद अवश्य है लेकिन सैद्धान्तिक दृष्टि से इनमें कोई मौलिक अन्तर नहीं है। विभिन्न प्रकार से समझाने के लिए भेद की कल्पना की गई है । क्योंकि सम्यग्दर्शन और ज्ञान श्रुतधर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं और सम्यक् चारित्र चारित्रधर्म है ही। इसी प्रकार जो पांच भेद किए गये हैं, उनमें प्रथम दो का ज्ञान में और अन्तिम तीन का चारित्र में समाहार हो जाता है। क्योंकि तप और वीर्य दोनों चारित्र साधना के ही अंग हैं। इस प्रकार ज्ञान और क्रिया अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में सभी भेदों को गभित किया जा सकता है। जैनधर्म में जिसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र कहा है उसे गीता में भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग कहा गया है। क्योंकि भक्ति के मूल में श्रद्धा रहती है, श्रद्धा के अभाव में भक्ति सम्भव ही नहीं है। ज्ञान ज्ञान है ही और कर्म का अर्थ क्रिया करना-आचरण करना । इस प्रकार भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग जैनधर्म के दर्शन, ज्ञान और चारित्र के दूसरे नाम कहे जा सकते हैं।
१ नांणकिरिया हि मोक्खो। २ श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः ।
-गीता ४/३६ श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है और ज्ञान प्राप्त होने पर ही इन्द्रिय-संयम (सदाचार) सघता है।
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भायामप्रसाचार्यप्रकाशा बाआआ
सानन्दन
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