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________________ जैन आचारसंहिता ४१७ (२) हिरण्य- सुवर्ण प्रमाण अतिक्रमण --- सोने-चांदी आदि के प्रमाण को भी किसी बहाने से बढ़ाना । (३) धन-धान्य प्रमाणातिक्रमण - मर्यादित प्रमाण के अतिरिक्त रुपया-पैसा अनाज, आदि की मर्यादा का भंग करना । ( ४ ) द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रमण -- द्विपद ( नौकर ), चतुष्पद (गाय, बैल आदि ) के परिमाण का उलंघन करना । (५) कुप्य प्रमाणातिक्रमण – दैनिक उपयोग में आने वाले वस्त्र, बर्तन आदि के कृत प्रमाण का उलंघन करना । पूर्वोक्त पांच अणुव्रत श्रावक के मूलव्रत हैं। उनका भलीभांति आचरण करने के लिए और जिन व्रतों की आवश्यकता होती है उन्हें उत्तरव्रत कहते हैं । गुणव्रत और शिक्षाव्रत इसी प्रकार के उत्तरव्रत हैं । उनमें से पहले गुणव्रतों की व्याख्या करते हैं— ६. दिग्व्रत मनुष्य तृष्णा के वश होकर विभिन्न क्षेत्रों में भटकता रहता है। धन की लालसा में ऊपर, नीचे, तिरछे हजारों मील भी जा सकता है, फिर भी उसकी आवश्यकता पूरी नहीं होती है । अतः इस लालसा को नियंत्रित करने के लिए श्रावकाचार में दिगव्रत का विधान किया गया है । इस व्रत का धारक समस्त दिशाओं - ऊपर, नीचे, तिरछे दसों दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा करता है और उससे बाहर के क्षेत्र में सब प्रकार के व्यापारों को त्याग देता है । इसको दिशापरिमाण व्रत भी कहते हैं । इस व्रत के धारक श्रावक को पांच अणुव्रतों सम्बन्धी दोषों से बचने के समान दिव्रत सम्बन्धी निम्नलिखित पांच दोषों से बचने का ध्यान रखना चाहिए ( १ ) उर्ध्व दिशा में की गयी क्षेत्रमर्यादा का अतिक्रमण करना । (२) अधोदिशा की मर्यादा को असावधानी वश उलंघन करना । (३) तिरछी दिशा में कृत मर्यादा का सीमोलंघन करना । ( ४ ) किसी दिशा के प्रमाण को घटाकर दूसरी दिशा के क्षेत्रप्रमाण में वृद्धि कर लेना । (५) सन्देह हो जाने पर सीमित क्षेत्र से भी आगे चले जाना । ७. उपभोग - परिभोग परिमाणव्रत एक बार भोगने योग्य भोजन आदि वस्तुओं को उपभोग और पुनः पुनः भोग की जाने वाली वस्तुओं को परिभोग कहते हैं, जैसे - वस्त्र, पात्र आदि वस्तुएँ। इस व्रत में उपभोग - परिभोग संबंधी वस्तुओं का मर्यादा उपरान्त त्याग किया जाता है । यह व्रत भोग और कर्म (व्यवसाय) की दृष्टि से दो प्रकार का है । भोग से त्याग करने पर इन्द्रिय विषयों की लोलुपता कम होती है और व्यापार सम्बन्धी मर्यादा कर लेने पर पापपूर्ण व्यापारों का त्याग हो जाता है । इस व्रत सम्बन्धी पांच अतिचार यह हैं- ( १ ) त्याग किए हुए सचित्त द्रव्य को असावधानीवश खा लेना । ( २ ) सचित्त वस्तु से संयुक्त द्रव्य को खाना । (३) नहीं पके हुए कच्चे फल, धान्य आदि को खाना । ( ४ ) पूरे नहीं पके हुए बाजारा, गेहूँ आदि को खाना । (५) जिनमें खाने का पदार्थ थोड़ा हो ओर फेंकना अधिक पड़े ऐसे फल आदि को खाना, जैसे सीताफल, ईख आदि । Jain Education International CASTIEL For Private & Personal Use Only Jo प्राज्ञति की आवदेन आमाना आमदन www.jainelibrary.org
SR No.210590
Book TitleJain Achar Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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