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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन २. जो अचेल होता है, वही अकिंचन धर्म के पालन में तत्पर वह भाज्य होती है, उसी प्रकार जो अचेल है उसकी शुद्धि निश्चित होती है, किन्तु सचेल की शुद्धि भाज्य है (एवमचेलवतिनियमादेव, ३. परिग्रह (वस्त्रादि) के लिये हिंसा (आरम्भ) में प्रवृत्ति होती भाज्या सचेले। भगवतीआराधना-४२३ पर विजयोदया टीका, पृ० है, जो अपरिग्रही है, वह हिंसा (आरम्भ) नहीं करता है। अतः पूर्ण ३२२), अर्थात् सचेल की शुद्धि हो भी सकती है और नहीं भी हो अहिंसा के पालन के लिये अचेलता आवश्यक है। सकती है। यहाँ दिगम्बर-परम्परा और यापनीय-परम्परा का अन्तर स्पष्ट ४. परिग्रह के लिये ही झूठ बोला जाता है। बाह्य और आभ्यन्तर है। दिगम्बर-परम्परा यह मानती है कि सचेल मुक्त (शुद्ध) नहीं हो परिग्रह के अभाव में झूठ बोलने का कोई कारण नहीं होता, अतः सकता, चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हो जबकि यापनीय-परम्परा यह अचेल-मुनि सत्य ही बोलता है। मानती है कि स्त्री, गृहस्थ और अन्यतैर्थिक सचेल हेकर भी मुक्त हो ५. अचेल में लाघव भी होता है। सकते हैं। यहाँ भाज्य (विकल्प) शब्द का प्रयोग यापनीयों की उदार ६. अचेलधर्म का पालन करने वाले का अदत्त-त्याग भी सम्पूर्ण और अनेकान्तिक दृष्टि का परिचायक है। होता है क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर ही बिना दी हुई वस्तु के ६. अचेलता में राग-द्वेष का अभाव होता है। राग-द्वेष बाह्य ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है। द्रव्य के आलम्बन से होता है। परिग्रह के अभाव में आलम्बन का ७. परिग्रह के निमित्त क्रोध कषाय होता है, अतः परिग्रह के अभाव होने से राग-द्वेष नहीं होते, जबकि सचेल को मनोज्ञ वस्त्र के • अभाव में क्षमा-भाव रहता है। प्रति राग-भाव हो सकता है। ८. अचेल को सुन्दर या सम्पन्न होने का मद भी नहीं होता, ७. अचेलक शरीर के प्रति उपेक्षा-भाव रखता है, तभी तो वह अत: उसमें आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है। शीत और ताप के कष्ट सहन करता है। ९. अचेल में माया (छिपाने की प्रवृत्ति) नहीं होती, अत: उसके ८. अचेलता में स्वावलम्बन होता है और देशान्तर गमन में किसी आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है। की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों १०. अचेल शीत, उष्ण, दंश, मच्छर आदि परीषहों को सहता के सहारे चल देता है, वैसे ही वह भी प्रतिलेखन (पीछी) लेकर चल है, अत: उसे घोर तप भी होता है। देता है। पुनः वे अचेलकत्व की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं ९. अचेलता में चित्त-विशुद्धि प्रकट करने का गुण है। लँगोटी १. अचेलता से शुद्ध संयम का पालन होता है, पसीना, धूल आदि से ढकने से भाव-शुद्धि का ज्ञान नहीं होता है। और मैल से युक्त वस्त्र में उसी योनि वाले और उसके आश्रय से १०. अचेलता में निर्भयता है, क्योंकि चोर आदि का भय नहीं रहने वाले त्रस जीव तथा स्थावर जीव उत्पन्न होते है। वस्त्रधारण करने रहता। से उन्हें बाधा भी उत्पन्न होती है। जीवों से संसक्त वस्त्रधारण करने ११. सर्वत्र विश्वास भी अचेलता का गुण है। न तो वह किसी वाले के द्वारा उठने, बैठने, सोने, वस्त्रको फाड़ने, काटने, बाँधने, पर शंका करता है और न कोई उस पर शंका करता है। धोने, कूटने, धूप में डालने से जीवों को बाधा (पीड़ा) होती है, जिससे १२. अचेलता में प्रतिलेखना का अभाव होता है। चौदह प्रकार - महान् असंयम होता है। का परिग्रह रखने वालों को जैसी प्रतिलेखना करनी होती है वैसी अचेल २. अचेलता से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। जिस प्रकार को नहीं करनी होती। सों से युक्त जंगल में व्यक्ति बहुत सावधान रहता है उसी प्रकार जो १३. सचेल को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, धोना, रँगना अचेल होता है वह इन्द्रियों (कामवासना) पर विजय प्राप्त करने में आदि परिकर्म करने होते हैं जबकि अचेल को ये परिकर्म नहीं करने पूर्णतया सावधान रहता है। क्योंकि ऐसा नहीं करने पर शरीर में विकार होते। (कामोत्तेजना) उत्पन्न होने पर लज्जित होना पड़ता है। १४. तीर्थङ्करों के अनुरूप आचरण करना (जिनकल्प का आचरण) ३. अचेलता का तीसरा गुण कषायरहित होना है, क्योंकि वस्त्र भी अचेलता का एक गुण है। क्योंकि संहनन और बल से पूर्ण सभी के सद्भाव में उसे चोरों से छिपाने के लिये मायाचार करना होता है। तीर्थङ्कर अचेल थे और भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जिनप्रतिमा वस्त्र होने पर मेरे पास सुन्दर वस्त्र, ऐसा अहंकार भी हो सकता है, और गणधर भी अचेल होते हैं और उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह वस्त्र के छीने जाने पर क्रोध तथा उसकी प्राप्ति में लोभ भी हो सकता अचेल होते हैं। जो सवस्त्र है वह जिन के अनुरूप नहीं है अर्थात् है, जबकि अचेलक में ऐसे दोष उत्पन्न नहीं होते हैं। जिनकल्प का पालन नहीं करता है। ४. सवस्त्र होने पर सुई, धागा, वस्त्र आदि की खोज में तथा १५. अचेल ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। यदि अपने शरीर उसके सीने, धोने, प्रतिलेखना आदि करने में ध्यान और स्वाध्याय को वस्त्र से वेष्टित करके भी अपने को निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है, का समय नष्ट होता है। अचेल को ध्यान-स्वाध्याय में बाधा नहीं होती। तो फिर अन्य परम्परा के साधु निर्ग्रन्थ क्यों नहीं कहे जायेंगे अर्थात् ५. जिस प्रकार बिना छिलके (आवरण) का धान्य नियम से उन्हें भी निर्ग्रन्थ मानना होगा। शुद्ध होता है, किन्तु छिलकेयुक्त धान्य की शुद्धि नियम से नहीं होती, इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय-परम्परा स्पष्ट रूप से dwidnidraditionardnidiramidnirdiwandriorite[१०१Jiwandriandiriramidnironomiridionoraniranoranditarde Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210587
Book TitleJain Achar me Achelaktva aur Sachelaktva ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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