________________
१५१
खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
जैन श्रुतियां इसका साक्ष्य हैं कि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के शासन तक में साधुओं की अपेक्षा साध्वियों तथा श्रावकों की अपेक्षा श्राविकाओं की संख्या अधिक रही है । स्त्री स्वभावतः ही धर्मप्रिय, करुणाशील एवं कष्टसहिष्णु होती है । धार्मिक साधना में उसकी रुचि तीव्र होती है । तपस्या एवं कष्टसहिष्णुता में भी वह पुरुष से आगे रहती है । जैन शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें किसी तीर्थंकर या आचार्य आदि की एक ही देशना से हजारों स्त्रियाँ एक साथ प्रबुद्ध हो उठतीं और वे एक साथ ही अपने समस्त भोग, ऐश्वर्य एवं सुखों का परित्याग कर रमणी से श्रमणी बन जातीं ।
अन्तकृत् दशांग सूत्र में वासुदेव श्रीकृष्ण की रानियों की चर्चा आती है, जिन्होंने भगवान अरिष्टनेमि के दर्शन कर धर्मदेशना सुनी और एक प्रवचन से प्रबुद्ध होकर पद्मावती आदि रानियों ने संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा ग्रहण कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत से उपवास, बेले, तेले, चोले, पचोले, मासखमण आदि विविध तपस्याओं से आत्मा को भावित करते हुए जीवन पर्यन्त चारित्रधर्म का पालन करते हुए संलेखनापूर्वक उपसर्ग सहन करते हुए अन्तिम श्वास से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुईं। इन रानियों में मुख्य हैं- पद्मावती, गौरी, गांधारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जाम्बवती, सत्य - भामा, रुक्मिणी आदि ।
जैनधर्म-दर्शन में नारी के भोग्या स्वरूप की सर्वत्र भर्त्सना की गई है और साधिका स्वरूप की सर्वत्र वन्दना, स्तवना । " अन्तकृत् शांग" सूत्र में मगध के सम्राट श्रेणिक की काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, पितृसेनकृष्णा, और महासेनकृष्णा आदि दस रानियों का वर्णन है । जिन्होंने श्रमण भगवान महावीर के उपदेश से प्रतिबोध पाकर संयम पथ स्वीकार किया। जो महारानियाँ राजप्रासादों में रहकर विभिन्न प्रकार के रत्नों के हार एवं आभूषणों से अपने शरीर को विभूषित करती थीं. वे जब साधनापथ पर बढ़ीं तो कनकावली, रत्नावली आदि विविध प्रकार की तपश्चर्या के हारों को धारण कर अपनी आत्म-ज्योति को चमकाया ।
उन्नीसवें तीर्थंकर भगवती मल्लीनाथ का नाम जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित हैं । नारी भी आध्यात्मिक विभूतियों एवं ऋद्धि-सिद्धियों की स्वामिनी होकर उसी प्रकार तीर्थंकर पद को प्राप्त कर सकती है जिस प्रकार पुरुष । भगवती मल्ली का जन्म मिथिला के राजा इक्ष्वाकुवंशीय महाराज कुम्भ की महारानी प्रभावती की कुक्षि से हुआ । जन्म से ही विशिष्ट ज्ञान की धारिका होने के कारण इनके पिता ने इनका नाम मल्ली भगवती रखा।
मल्लीकुमारी रूप, गुण, लावण्य में अत्यन्त उत्कृष्ट थीं । इनकी उत्कृष्टता की चर्चा देशदेशान्तरों में फैल चुकी थी । अनेक देशों के बड़े-बड़े महिपाल मल्ली पर मुग्ध हो रहे थे । मल्लीकुमारी की याचना के लिए विभिन्न देशों के राजा-महाराजा कुम्भ के पास अपने-अपने दूत भेज रहे थे । इस घटना
राजा चिन्तित हो रहे थे । मल्लीकुमारी ने अपने पिता की चिन्ता दूर करते हुए विभिन्न देशों के भूपतियों को सम्बोधित करते हुए शरीर की क्षणभंगुरता और निस्सारता का बोध कराया । मल्ली भगवती का उद्बोधन सुन सभी को उनके वचनों पर श्रद्धा हो गई और सभी अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होने के भाव व्यक्त करने लगे । मल्ली भगवती ने तपपूर्वक सावद्य कर्मों की निर्जरा कर दीक्षा ग्रहण की । आपके साथ तीन सौ स्त्रियाँ और तीन सौ राजकुमार दीक्षित हुए । मल्ली भगवती जिस दिन दीक्षित हुई उसी दिन अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी शिला पट्ट पर सुखासन से ध्यान स्थित हो गईं। अपने शुद्ध भावों में रमण करते हुए उसी दिन केवलज्ञान की उपलब्धि कर ली ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org