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जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय
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राशि रचने वाली इकाइयाँ समय, प्रदेश, अविभागी, प्रतिच्छेद, वर्ग एवं सम्प्रदायबद्ध हैं ।
अपने लेख' में जैन ने जैनागमों एवं उसकी टीकाओं में पाये जाने वाले समुच्चयों के प्रकार, उदाहरण लिखने की विधि संकेतात्मक विधि, पद्धति, उन पर सम्पादित की जाने वाली विविध संक्रियाओं का विवरण दिया है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन जैनगणित में आधुनिक समुच्चय गणित के बीज विद्यमान थे किन्तु समुचित पारिभाषिक शब्दावली ( Terminology ) के अभाव आधुनिक चिन्तक उसे हृदयंगम नहीं कर पा रहे हैं। प्राचीन शब्दावली एवं एतद्विषयक वर्तमान शब्दावली में अत्यधिक मतभेद है ।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि राशि प्रयुक्त हुआ है । इस तथ्य को अस्वीकार करने पर क्षेत्र, कर्म सिद्धान्त का गणित, उपेक्षित रह जाता है । करता है ।
शब्द सन्दर्भित गाथा में समुच्चय के अर्थ में जैन गणित का एक अतिविशिष्ट एवं अद्वितीय यह तथ्य भी हमारी विचारधारा को पुष्ट
५. कलासवन्ने (सं० कलासवर्ण ) - भिन्नों से सम्बद्ध गणित को व्यक्त करने वाला यह शब्द निर्विवाद है क्योंकि वक्षाली हस्तलिपि से महावीराचार्य ( ८५० ई० ) पर्यन्त यह शब्द मात्र - इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जो संख्या पूर्ण न हो अंशों में हो उसे समान करना कला सवर्ण कहलाता है । इसे समच्छेदोकरण, सवर्णन और समच्छेद विधि भो कहते हैं । कला शब्द का प्रयोग तिलोयपणत्ति में भिन्न के अर्थ में हुआ है । जैसे एक बटे तीन को "एक्कला तिविहत्ता से व्यक्त किया गया है, अतः कला सवर्ण विषय के अन्तर्गत भिन्नों पर अष्ट परिकर्म, भिन्नात्मक श्रेणियों का संकलन प्रहसन एवं विविध जातियों का विवेचन आ जाता है ।
६. जावंतावति (सं० यावत् तावत् ) - इसे गुणाकार भी कहा जाता है । अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या प्राकृतिक संख्याओं का गुणन या संकलन के रूप में की। इसका निर्वचन व्यवहार रूप में करते हुए बताया गया कि यदि पहले जो संख्या सोची जाती है उसे गच्छ, इच्छानुसार गुणन करने वाली संख्या वाच्छ या इष्ट संख्या कहें तो पहले गच्छ संख्या को इष्ट संख्या से गुणा करते हैं, उसमें फिर इष्ट को मिलाते हैं, उस संख्या को पुनः गच्छ से गुणा करते हैं । तदनन्तर गुणनफल में इष्ट के दुगुने से भाग देने पर गच्छ का योग आ जाता है । अर्थात् यदि गच्छ = n, इष्ट = x तो प्राकृतिक संख्याओं का योग ।
n(nx+x)
2x
S=
इसी को विविच्छित, यादृच्छा, वाच्छा, यावत् तावत् राशि कहते हैं । इस सम्पूर्ण क्रिया को यावत् तावत् कहते हैं ।
जैन ने लिखा है कि 'इस शब्द का प्रयोग उन सीमाओं को व्यक्त करता है जिन परिणामों को विस्तृत करना होता है; अथवा सरल समीकरण की रचना करनी होती है। इसका अर्थ जहाँ
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१. देखें सं०-९, पृ० १ ।
२. तिलोयपण्णत्ति - २।११२ ।
३. 'जावं तावति वा गुणा कटौति वा एगटा' स्थानांग वृत्ति - पत्र ४७१ ।
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