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--- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य अपने उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिए थे।
मात्र यही नहीं वर्तमान में भी दिगंबर परंपरा के महान संत इस संबंध में अर्धमागधी आगम साहित्य से कुछ प्रमाण
एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य मुनि श्री प्रमाण सागरजी
अपनी पुस्तक जैन-धर्मदर्शन (पृ. ४०) में लिखते हैं कि उन प्रस्तुत किए जा रहे हैं यथा--
भगवान् महावीर का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ। १. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। समवायांग,
जब श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों ही परंपराएँ यह मानकर समवाय ३४, सूत्र २२
चल रही हैं कि भगवान का उपदेश अर्धमागधी में हुआ था और तए णं समणे भगवं महावीरे कुणिअस्स भंभसारपुतस्स
इसी भाषा में उनके उपदेशों के आधार पर आगमों का प्रणयन अद्धमागहीए भासाए भासत्ति अरिहाधम्म परिकहइ। -
हुआ तो फिर शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा करके इस औपपातिक सूत्र
खाई को चौड़ा क्यों किया जा रहा है? यह तो आगमिक प्रमाणों ३. गोयमा। देवाणं अद्धमागहीए भासाए भासंति सवि य णं की चर्चा हुई। व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की
अद्धमार्गहा भासा भासिज्जमाणी विसज्जति। भगवई, लाडनूं पुष्टि करते हैं-- शतक ५,उद्देशक ४,सूत्र ९३
१. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिए तो तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्त माहणस्स देवाणंदा यह स्वाभाविक है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का माहणीए तीसेय महति महलियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए प्रणयन किया होगा। अतः सिद्ध है कि आगमों की मूलभाषा जइपरिसाए...सव्व भासाणुगामणिए सरस्सईए क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है। जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमगहाए भासाए भासइ धम्म ।
२. इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य मान्य ग्रन्थों में परिकहइ। भगवई लाडनूं शतक ९,उद्देशक ३३,सूत्र १४९
किसी एक भी ग्रन्थ में एक भी संदर्भ ऐसा नहीं है, जिससे यह तए णं समणे भगवं महागीरे जामालिस्स प्रतिध्वनित भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी खत्तियकुमारस्स...अद्धमागहाए भासाए भासइ धम्म प्राकृत थी। उनमें मात्र यह उल्लेख है कि तीर्थंकरों की जो वाणी
परिकहइ। भगवई लाडनूं शतक ९.उद्देशक ३३,सूत्र १६३ ।। खिरती है, वह सर्वभाषारूप परिणत होती है। उसका तात्पर्य ६. सत्तसत्तसमदरिसीहिं अद्धमागहाए भासाए सुत्तं उवदिटुं।
मात्र इतना ही है कि उनकी वाणी जन साधारण को आसानी से आचारांग चूर्णि,जिनदासगणि पृ. २५५
समझ में आती थी। वह लोकवाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती
क्षेत्रों की क्षत्रीय बोलियों के शब्द-रूप भी होते थे और यही मात्र इतना ही नहीं, दिगंबर परंपरा में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द
कारण था कि उसे मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका में दिगंबर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते हैं कि भगवान्
३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, महावीर ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया। प्रमाण के उसका वहाँ की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है। प्राचीन लिए टीका के अनुवाद का वह अंश प्रस्तुत है। 'अध' मगध देश स्तर के जैन आगम यथा -आचारांग, सूत्रकृतांग इसिभासियाई भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती (ऋषिभाषित), उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि मगध और उसके है। शंका-अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है समीपवर्ती क्षेत्र में रचित हैं उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की क्योंकि भगवान की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर-मगध देव के सूचनाएँ हैं। मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं है कि सानिध्य से होने से आचार्य प्रभाचन्द्र ने नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ महावीर ने बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार में लिखा है "एक योजन तक भगवान् की वाणी स्वयमेव सुनाई किया हो। अतः उनकी भाषा अर्धमागधी रही होगी। देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्यध्वनि का विस्तार मगध जाति के देव करते हैं। अतः अर्धमागधी भाषा
४. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में और देवकृत है। (षट्प्राभृतम् चतुर्थ बोधपाहुड टीका पृ. १७६/२१)
दूसरी वाचना खण्डगिरि (उड़ीसा) में हुई, ये दोनों क्षेत्र मथुरा से दूसर
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