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मुनि श्रीपुण्यविजय : जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७४१
यहाँ पर मैंने आगम और उनकी व्याख्या से प्रारंभ कर विविध विषयों के महत्त्वपूर्ण प्राकृत वाङ्मय का अतिसंक्षिप्त परिचय देने का प्रयत्न किया है. इससे आपको पता लगेगा कि-प्राकृत भाषा में कितना विस्तृत एवं विपुल साहित्य है और विद्वानों ने इस भाषा को समृद्ध करने के लिए क्या क्या नहीं लिखा ? अपने-अपने विषय की दृष्टि से तो इस समग्र साहित्य का मूल्य है ही, किन्तु इस वाङ्मय में जो सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक विपुल सामग्री भरी पड़ी है, उसका पता सटीक बृहत्कल्पसूत्र, निशीथचूणि, अंगविज्जा, च उपन्त महापुरिसचरियं आदि के परिशिष्टों को देखने से लग सकता है. प्राकृत भाषा और उसके सर्वांगीण कोश की सामग्री इस वाङ्मय में से ही पर्याप्तमात्रा में प्राप्त हो सकती है. पूर्वोक्त प्राकृत कोशों में नहीं आये हुए हजारों शब्द इस बाङ्मय से प्राप्त हो सकते हैं. इसी तरह आचार्य हेमचंद्र की 'देसी नाममाला' में असंग्रहीत सैकड़ों देशी शब्द इस वाङ्मय में दिखाई देते हैं. इसके लिए विद्वानों को इसी वर्ष प्रकाशित डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा संपादित प्राकृत कुवलयमाला एवं पं० अमृतलाल भोजक द्वारा संपादित 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' की प्रस्तावना एवं शब्दकोशों का परिशिष्ट देखना चाहिए. मेरा मत है कि-भविष्य में प्राकृत भाषा के सर्वांगीण कोश के निर्माताओं को यह समग्र वाङ्मय देखना होगा. यही नहीं अपितु संस्कृत भाषा के कोश के निर्माताओं को भी यह वाङ्मय देखना व शब्दों का संग्रह करना अति आवश्यक है. इसका कारण यह है किप्राकृत व संस्कृत भाषा को अपनाने वाले विद्वानों का चिरकाल से अति नैकट्य रहा है. इतना ही नहीं अपितु जो प्राकृत वाङ्मय के निर्माता रहे हैं वे ही संस्कृत वाङ्मय के निर्माता भी रहे हैं. अतः दोनों कोशकारों को एक-दूसरा साहित्य देखना आवश्यक है. अन्यथा दोनों कोश अपूर्ण ही होंगे.
इस आगमादि साहित्य से विद्वानों को आन्तरिक व बाह्य अथवा व्यावहारिक व पारमार्थिक जीवन के साथ संबंध रखने वाले अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है. यद्यपि भारतीय आर्य ऋषि, मुनि एवं विद्वानों का मुख्य आकर्षण हमेशा धार्मिक साहित्य की ओर ही रहा है तथापि इनकी कुशलता यही है कि-इन्होंने लोकमानस को कभी भी नहीं ठुकराया. इसीलिए इन्होंने प्रत्येक विषय को लेकर साहित्य का निर्माण किया है. साहित्य का कोई अंग इन्होंने छोड़ा नहीं है. इतना ही नहीं अपितु अपनी धर्मकथाओं में भी समय-समय पर साहित्य के विविध अंगों को याद किया है. यही कारण है कि-अपनी प्राचीन धर्मकथाओं में धार्मिक सामग्री के अतिरिक्त लोकव्यवहार को स्पर्श करने वाले अनेक विषय प्राप्त होते हैं. उदाहरण के तौर पर कथा-साहित्य में राजनीति, रत्नपरीक्षा, अंगलक्षण, स्वप्नशास्त्र, मृत्यु ज्ञान आदि अनेक विषय पाते हैं. पुत्र-पुत्रियों को पठन, विवाह, अधिकारप्रदान, परदेशगमन आदि अनेक प्रसंगों पर शिक्षा, राजकुमारों को युद्धगमन, राज्यपदारोहण आदि प्रसंगों पर हितशिक्षा, पुत्र-पुत्रियों के जन्मोत्सव, झुलाने, विवाह आदि करने का वर्णन, ऋतुवर्णन, वनविहार, अनंगलेख, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अलंकारशास्त्र, साहित्यचर्चा आदि विविध प्रसंग; साहूकारों का वाणिज्य-व्यापार, उनकी पद्धति, उनके नियम, भूमि व समुद्र में वाणिज्य के लिए जाना, भूमि व समुद्र के वाहन, व जहाज के प्रकार, तद्विषयक विविध सामग्री, जीवन के सद्गुण-दुर्गण, नीति-अनीति, सदाचारदुराचार आदि का वर्णन-इत्यादि सैकड़ों विषयों का इस साहित्य में वर्णन है. ये सभी सांस्कृतिक साधन हैं.
वसुदेव हिंडी प्रथम खंड (पत्र १४५) में चारुदत्त के चरित में चारुदत्त की स्थल संबंधी व सामुद्रिक व्यापारिक यात्रा का अतिरसिक वर्णन है जिसमें देश-विदेशों का परिभ्रमण; सूत्रकृतांग की मार्गाध्ययन-नियुक्ति में (गा० १०२) वणित शंकुपथ, अजपथ, लतामार्ग आदि का निर्देश किया गया है. इसमें यात्रा के साधनों का भी निर्देश है. परलोकसिद्धि, प्रकृति-विचार, वनस्पति में जीवत्व की सिद्धि, मांसभक्षण के दोष आदि अनेक दार्शनिक धार्मिक विषय भी पाये जाते हैं. इसी वसुदेवहिंडी के साथ जुड़ी हुई धम्मिल्लाहिंडी में "अत्थसत्थे य भणियं—'विसेसेण मायाए सत्थेण य हतब्बो अप्पणो विवड्डमाणो सत्तु' त्ति" (पृ० ४५) ऐसा उल्लेख आता है जो बहुत महत्त्व का है. इससे सूचित होता है कि प्राचीन युग में अपने यहाँ प्राकृत भाषा में रचित अर्थशास्त्र था. श्रीद्रोणाचार्य ने ओधनियुक्ति में "चाणक्कए वि भणियं'जइ काइयं न वोसिरइ तो अदोसो' ति" (पत्र १५२-२) ऐसा उल्लेख किया है. यह भी प्राकृत अर्थशास्त्र होने की साक्षी देता है, जो आज प्राप्त नहीं है. इसी ग्रंथ में पाकशास्त्र का उल्लेख भी है जिसका नाम पोरागमसत्य दिया है.
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