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७३६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय ८ ओपनियुक्ति महाभाष्य, कल्पलघुभाष्य एवं पंचकल्पमहाभाष्य के प्रणेता संघदासगणि क्षमाश्रमण हैं व विशेषावश्यक महाभाष्य के प्रणेता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं. दूसरे भाष्य-महाभाष्यों के कर्ता कौन हैं, इसका पता अभी तक नहीं लगा है. संघदासगणि जिनभद्रगणि से पूर्ववर्ती हैं. श्रीजिनभद्रगणि महाभाष्यकार के नाम से लब्धप्रतिष्ठ हैं. जिन आगमों पर नियुक्तियों की रचना है उनके भाष्य, मूल सूत्र व नियुक्ति को लक्ष्य में रखकर रचे गये हैं. जिनकी नियुक्तियाँ नहीं हैं उनके भाष्य सूत्र को ही लक्षित करके रचे गये हैं. उदाहरण रूप में जीतकल्पसूत्र और उसका भाष्य समझना चाहिए. महाभाष्य के दो प्रकार हैं-पहला प्रकार विशेषावश्यक महाभाष्य, ओधनियुक्ति महाभाष्य आदि हैं, जिनके लघुभाष्य नहीं हैं. वे सीधे नियुक्ति के ऊपर ही स्वतंत्र महाभाष्य हैं. दूसरा प्रकार लघुभाष्य को लक्षित करके रचे हुए महाभाष्य हैं. इसका उदाहरण कल्पबृहद्भाष्य को समझना चाहिए. यह महाभाष्य अपूर्ण ही मिलता है. निशीथ और व्यवहार के भी महाभाष्य थे, ऐसा प्रघोष चला आता है, किन्तु आज वे प्राप्त नहीं हैं. निशीथमहाभाष्य के अस्तित्व का उल्लेख हट्रिप्पनिकाकार-प्राचीन ग्रंथसूचीकार ने अपनी सूची में भी किया है. ऊपर जिन महाकाय भाष्य-महाभाष्य का परिचय दिया गया है उनके अलावा आवश्यक, ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, दशवकालिक सूत्र आदि के ऊपर भी लधुभाष्य प्राप्त होते हैं, किन्तु इनका मिश्रण नियुक्तियों के साथ ऐसा हो गया है कि कई जगह नियुक्ति-भाष्यगाथा कौन-सी एवं कितनी हैं ? इसका निर्णय करना कठिन हो जाता है. इनमें से भी जब मैंने आवश्यकसूत्र की चूणि और हारिभद्री वृत्ति को देखा तब तो मैं असमंजस में पड़ गया. चूर्णिकार कहीं भी 'भाष्यगाथा' नाम का उल्लेख नहीं करते हैं, जबकि आचार्य हरिभद्र स्थान-स्थान पर 'भाष्य और मूलभाष्य' के नाम से अवतरण देते हैं. आचार्य श्री हरिभद्र जिन गाथाओं को मूलभाष्य की गाथाएँ फरमाते हैं उनमें से बहुत-सी गाथाओं का उल्लेख उनपर चूणि-चूर्णिकार ने की ही नहीं है. यद्यपि उनमें से कई गाथाओं की चूणि पाई जाती है. फिर भी चूणिकार ने कहीं भी उन गाथाओं का 'मूल भाष्य' के रूप में उल्लेख नहीं किया है. प्रतीत होता है कि-आचार्य श्री हरिभद्र ने दशवैकालिकनियुक्ति की तरह इस वृत्ति में काफी गाथाओं का संग्रह कर लिया है.
चूर्णि-विशेष चूर्णि-आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती सूत्र, जीवाभिगम, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापनासूत्र, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, जीतकल्प, आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, पिडनियुक्ति, नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार-अंगुलपदचूणि, श्रावकप्रतिक्रमण ईर्यापथिकी आदि सूत्र-इन आगमों की चूणियाँ अभी प्राप्त हैं. निशीथसूत्र की आज विशेष चूणि ही प्राप्त है. कल्प की चूणि-विशेषचूणि दोनों ही प्राप्त हैं. दशवैकालिकसूत्र की दो चूणियां प्राप्त हैं. एक स्थविर अगस्त्यसिंह की और दूसरी अज्ञातकर्तृक है. आचार्य श्री हरिभद्र ने इस चूणि का 'वृद्धविवरण' नाम दिया है. अनुयोगद्वार सूत्र में जो अंगुलपद है उस पर आचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाधमण ने चूणि रची है. चूणिकार श्री जिनदास गणि महत्तर और प्राचार्य श्री हरिभद्र ने अपनी अनुयोगद्वारसूत्र की चूणि-वृत्ति में श्री जिनभद्र के नाम से इसी चूणि को अक्षरशः ले लिया है. ईपिथिकी सूत्रादि की चूणि के प्रणेता यशोदेवसूरि हैं, इसका रचनाकाल सं० ११७४ से ११८० का है. श्रावक प्रतिक्रमण चूणि श्री विजयसिंह सूरि की रचना है, जो वि० सं ११८२ की है.
ज्योतिष्करंडक प्रकीर्णक पर शिवनंदी वाचक विरचित 'प्राकृत वृत्ति' पाई जाती है, जो चूरिण में शामिल हो सकती है. आम तौर से देखा जाय तो पिछले जमाने में प्राकृतवृत्तियों को 'चूणि' नाम दिया गया है. फिर भी ऐसे प्रकरण अपने सामने मौजूद हैं, जिनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में प्राकृत व्याख्याओं को 'वृत्ति' नाम भी दिया जाता था. दशवकालिकसूत्र के दोनों चूर्णिकारों ने अपनी चूणियों में प्राचीन दशवकालिकव्याख्या का 'वृत्ति' के नाम से जगह जगह उल्लेख किया है. ऊपर जिन चूणियों का उल्लेख किया गया है, उनमें से प्रायः बहुत-सी चूणियाँ महाकाय हैं। इन सब चूणियों के प्रणेताओं के नाम प्राप्त नहीं होते हैं, फिर भी स्थविर अगस्त्यसिंह शिवनंदि वाचक, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, जिनदास महत्त र, गोपालिकमहत्तरशिष्य-इन चूणिकार आचार्यों के नाम मिलते हैं.
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Jain Edi
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