________________
462
૫. નાનચંદજી મહારાજ જસશતાબ્દિ
श्रद्धा की शक्ति बड़ी जबर्दस्त होती है। आप दान देंगे, शील पालेंगे तथा तप भी करेंगे, किन्तु हृदय में श्रद्धा नहीं होगी तो ये सव कार्य ऊपरी और दिखावे के बन जायेंगे। कहा है -
'शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व क्रिया करी,
छार पर लिपणु तेह जाणो रे । मुस्लिम मझहब में भी कहा है -
नमाज तुम हम सभी जो पढ़ते, मारे फर्क है इतना जो धरते।
कोई दिलों से कोई दिखाने के लिये। जिस प्रकार हमारे यहाँ सामायिक-प्रतिक्रमण है, वैष्णव समाज में संध्यावंदन आदि है इसी प्रकार मुस्लिम समाज में नमाज है। श्रद्धा सब जगह एक सी है। सभी भगवान की ओर लौ लगाते हैं। फर्क केवल भाषा में हैं, भाव में नहीं।
नमाज पढ़ने वाले कहते हैं - "ऐ खुदा ! मैं गुनहगार हूं. मेरे गुनाह माफ करो।" संध्या करने वाले भावना भाते हैं"मेरे जीवन-व्यवहार में जो भी हिंसा हुई है, मेरे द्वारा किसी प्राणी का दिल दुखाया गया है तो भगवन् मुझे क्षमा करो!" "हम लोग प्रतिक्रमण में मिच्छामि-दुक्कडं" लेते हैं, वह भी अराधों को माफी मांगना ही है। बस नाम सब अलग रखते हैं। कोई प्रार्थना कहता है, कोई संध्या और कोई नमाज, पर प्रयत्न तो पापों से छूटने के लिए ही है। सच्चे हृदय से और अन्तःकरण की सम्पूर्ण श्रद्धा से प्रार्थना करनेवाला व्यक्ति दिखावा नहीं करता। वह अपने इष्ट के लिए उद्यत रहता है फिर चाहे वह हिन्दू हो, ईसाई हो, वैष्णव हो या मुसलमान हो।
सच्चे श्रद्धालु भक्त ऐसे ही होते हैं। वे प्रार्थना में अन्तर नहीं मानते, चाहे वह किसी भी भाषा में क्यों न होवे । वे भगवान में अन्तर नहीं मानते चाहे उनका नाम कुछ भी हो। पूज्य आनन्दघनजी म. कहते है -
राम कहो रहमान कहो कोउ, कान्ह कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री। निजपद रमे राम तो कहिये, रहम करे रहिमान री। कर्षे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निर्वाण री। परसे रूप पारस सो कहिये, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री।
इह विधि साधो आप आनन्दघन, चेतनमय निष्कर्म री। कितना सुन्दर पद्य है। अपने इष्ट को चाहे राम कहो, रहीम कहो, महादेव, पार्श्वनाथ या ब्रह्मा कहो, कोई अन्तर नहीं है । आत्म-स्वरूप में रमण करे, वह राम है, रहम अर्थात् प्राणियों पर दया करे, वह रहमान है, कर्मों को काटने का प्रयत्न करे वह कृष्ण है, संसार मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त करे वह महादेव, आत्म-रूप को स्पर्श करे वह पार्श्वनाथ और आत्मा की पहचान करे वह ब्रह्म हैं । अर्थात् यह आत्मा ही भगवत्-स्वरूप एवं चैतन्यमय है, फिर चाहे वह किसी भी नामधारी देह में क्यों न रहे और उसे किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाय । वस्तुतः आत्मतत्त्व में यह अटूट आस्था ही यथार्थ श्रद्धा या सम्यक् दर्शन का मूल आधार है। इसके निम्न षट् स्थान माने गये हैं। १-आत्मा है, २-आत्मा नित्य है, ३- आत्मा कर्मों का कर्ता है, ४- आत्मा के कर्मों का प्रतिफल अवश्य मिलता है, ५- कर्मों से मुक्ति सम्भव है, और ६ - मुक्ति का उपाय सद्धर्म का पालन है।
आवश्यकता केवल यही है कि ईश-चिन्तन, भजन, प्रार्थना, पूजा, सेवा, परोपकार, दान, शील-पालन तथा तपादि क्रियाएं, आत्म- श्रद्धा के साथ की जाय। महाराज क्या कहेंगे? समाज के व्यक्ति क्या कहेंगे? इसलिये नहीं। समाज की दष्टि में धर्मात्मा दिखाई देने की भावना से जो किया जाएगा वह दिखावा होगा, उसका कोई मूल्य नहीं होगा, किन्तु
तत्त्वदर्शन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org