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Specialisation an युग में (जो कि आज अवश्यक बन गयी है) आधी जिन्दगी तो वैसे ही बीत जाती है।
आज का सबसे बड़ा खतरा है मनुष्य की संवेदना का समाप्त हो जाना। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास ने आज मनुष्य को एकाकी-सा बना दिया है सामाजिक विघटन, पारिवारिक विघटन ने हमें एक दूसरे से बिल्कुल अलग-सा कर दिया। उन्मुक्त वासनाओं के कारण मर्यादायें विनष्ट होती जा रही हैं। मर्यादाओं का इस प्रकार नष्ट होना क्या सामाजिक ताने-बाने को विच्छिन्न ही नहीं तोड़ मरोड़ कर नष्ट नहीं कर देगा ? क्या हम एक अति की ओर नहीं बढ़ रहे हैं। क्या मर्यादायें निरी व्यर्थ हो गई है? और यह भी स्पष्ट दिखता है कि मर्यादाओं को
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आडंबर, दीन, दकियानुसी विचार, पुराण पंथी मानने वाले भी बहुत हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारम्भिक वर्षों में लोग "धार्मिक शिक्षण" क्यों कैसे कैसा और किस प्रकार का हो इस पर विचार करते थे। आज तो धर्म और नैतिकता का कोई नाम भी लेना नहीं चाहता है हम अपनी संस्कृति को भुलाते जा रहे हैं। अंतराष्ट्रीयकरण हो रहा है। विदेशी कंपनियों का स्वतंत्र रूप से या भारतीय कंपनियों के साथ मिल-जुलकर अरबों-खरबों रुपये की पूंजी लगाकर इतने बड़े-बड़े उद्योग धंधे लगाना कि जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आज सहज हो रहा है कि हमने व्यापार के सभी क्षेत्रों में अपने दरवाजे खोले ही नहीं उन्हें तोड़कर कहीं कूड़े में फेंक दिये हैं। संसार की इस परिस्थिति में हमारी शिक्षा कैसी हो? यह आज नहीं तो कल अवश्य ही विचारणीय प्रश्न बनकर आयेगा देश के धनपतियों का साग, भाजी, किराना जैसे छोटे गिने जाने वाले व्यवसायों में कूद पड़ना, अरबों-खरबों की पूंजी लगाकर ऐसे सामान्य व्यवसाय करना और परिणाम स्वरूप सैकड़ों हजारों छोटे व्यावसइयों का व्यवसाय छीनकर उन्हें बेकार बना देना। भीषण विभीषिका है यह तो इन सबके मूल में जायें तो इनका मुख्य कारण है मुद्रा | की अनाप - सनाप वृद्धि । अर्थ के कारण यह समस्या इतनी बड़ी l समस्या बन जायेगी, यह तो किसी ने जाना भी नहीं था । पैसे की रेलम - छेलम ने नव लक्षाधीशों ने सारी सामाजिक व्यवस्था को ही अस्त-व्यस्त कर दिया। संभवतः इसके मूल में भी कहींजीवन स्तर ऊँचा उठाने का सिद्धांत ही रहा होगा। पहले ग्रामीण और शहरी दो ही आर्थिक सामाजिक भेद थे। इस भेद को भी मिटाने के लिए श्री विनोवा भावे एवं गांधी ने ग्राम स्वावलंबन की बात कही थी। आज तो यह भेद इतना बढ़ गया है कि हर छोटेछोटे ग्राम बस्ती में यह भेद नजर आने लग गया है। बम्बई देहली के मुकाबले में मद्रास कलकत्ता गांव हैं और मद्रास कलकत्ता
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मुकाबले में अहमदाबाद कानपुर गांव हैं। किसी समय वर्धा कितना उत्तम शहर जाना जाता था। आज वह किसी छोटे गांव से भी महत्वहीन हो गया है। इन और ऐसी कई समस्याओं के लिए हमें अपनी शिक्षा पद्धति को संयोजित एवं सार्थक बनाना होगा। इसके लिए कुछ विचार निम्ननुसार हैं:
१. निजी शिक्षा संस्थायें बन्द हों शासकीय शिक्षा संस्थाओं का ठीक प्रबन्धन न होने और शिक्षा स्तर सुधारने की दृष्टि से हमने निजी शालाओं की छूट दी । परिणाम स्वरूप सारे
निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम से होकर शिक्षा प्रवेश में डोनेशन का रिवाज आया। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में अवांछित स्पर्द्धा उदित हुई । व्यवसायीकरण हुआ और शिक्षा की दुकाने यत्र-तत्र सर्वत्र दिखाने लगी । निजी युनिवर्सिटियों की, व्यावसायिक कॉलेजों की भरमार हो गई है। हर क्षेत्र में प्रबंधन का राग अलापा जा रहा है जो स्वामी और सेवक के बीच की कड़ी बनकर केवल उत्पीड़न को ही बढ़ाता है। बालकों में वर्ग भेद बड़े छोटों का विवाद फिर मुखर होने की पूर्व भूमिका है।
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२. व्यावसायिक शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त व्यावसायिक शिक्षा भी आज जरुरी हो गई है। आखिर पेट भरने के लिए आदमी को कुछ तो हुनर जानना जरुरी है। इससे वह स्वावलंबी होगा और आर्थिक दृष्टि से चिन्ता मुक्त।
३. चिन्तन, बुद्धि, रचनात्मक प्रतिभा आदि मानवीय क्षमताओं में निखार लाने के लिए साहित्य और कला का शिक्षण भी किसी स्तर तक जरुरी है।
४. विज्ञान और टेक्नोलोजी के विकास से वैश्वीकरण जितनी तीव्रगति से बढ़ता जा रहा है उससे ऐसा लगता है कि आज नहीं तो कल अवश्य ही सारा संसार एक हो जायेगा । देशों की सीमाएं समाप्त होकर विश्व पूरा ही एक देश बन जायेगा । लोगों में अन्तर्राष्ट्रीय नौकरियों के लिए आज जो दौड़ देखी जा रही है वह एक दिन इस सपने को अवश्य पूरा करेगी। ऐसी स्थिति में सारे संसार की भाषा, मुद्रा, व्यापार, उद्योग एवं शासन प्रबन्ध आदि सब में एकात्मकता आ जायेगी। कल के उस विश्व के लिए हमें तैयारी तो आज से ही करना पड़ेगी। इसीलिए भाषा शिक्षण प्रारंभिक वर्षों में (कक्षा १-२ एवं ३ तक) क्षेत्रीय भाषा का हो । कक्षा ४ से ७ तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा के साथ राष्ट्र भाषा हिन्दी का शिक्षण भी हो तथा उससे आगे चलकर हाई स्कूल कक्षा १० तक मातृभाषा, राष्ट्रभाषा के साथ अंतर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी के अध्यापन की नीति भी हो नवोदय विद्यालयों ने इस विषय में जो भ्रान्तियें थी वे सब दूर कर दी हैं। कुछ रही भी होंगी तो वे कुछ वर्षों में ही निरस्त हो जायेंगी।
० अष्टदशी / 1280
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