________________ 10000000000000000000005लयल०७ ACCORDAR000000000000T 2 OORato2018 5.0000000000000000000 629 / | जन-मंगल धर्म के चार चरण इसलिए आचार्य ने शिकारी की मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हुए ज्वाला भड़कती जाती है और एक दिन मानव की सम्पूर्ण कहा है-जिसे शिकार का व्यसन लग जाता है वह मानव प्राणी-वध सुख-शान्ति उस ज्वाला में भस्म हो जाती है। करने में दया को तिलांजलि देकर हृदय को कठोर बना देता है। गृहस्थ साधकों के लिए कामवासना का पूर्ण रूप से परित्याग वह अपने पुत्र के प्रति भी दया नहीं रख पाता। शिकार के व्यसन करना बहुत ही कठिन है, क्योंकि जो महान् वीर हैं, मदोन्मत्त ने अनेकों के जीवन को कष्टमय बनाया है। शिकारी एक ही पशु गजराज को परास्त करने में समर्थ हैं, सिंह को मारने में सक्षम हैं, का वध नहीं करता, वह अहंकार के वशीभूत होकर अनेकों जीवों वे भी कामवासना का दमन नहीं कर पाते। एतदर्थ ही अनियन्त्रित को दनादन मार देता है। इसीलिए आचार्य वसुनन्दी ने कहा-मधु, कामवासनों को नियन्त्रित करके समाज में सुव्यवस्था स्थापित करने मद्य, मांस का दीर्घकाल तक सेवन करने वाला जितने महान् पाप / हेतु मनीषियों ने विवाह का विधान किया। विवाह समाज की नैतिक का संचय करता है उतने सभी पापों को शिकारी एक दिन में शान्ति, पारिवारिक प्रेम और प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने वाला एक शिकार खेलकर संचित कर लेता है। उपाय है। गृहस्थ के लिए विधान है कि वह अपनी विधिवत् (6) चोरी विवाहित पत्नी में सन्तोष करके शेष सभी परस्त्री आदि के साथ शिकार की तरह चोरी भी सप्त व्यसनों में एक व्यसन है। मैथुन विधि का परित्याग करे। विराट रूप में फैली हुई वासनाओं चोरी का धन कच्चे पारे को खाने के सदृश है। जैसे कच्चा पारा को जिसके साथ विधिपूर्वक पाणिग्रहण हुआ है उसमें वह केन्द्रित खाने पर शरीर में से फूट निकलता है, वैसे ही चोरी का धन भी करे। इस प्रकार असीम वासना को प्रस्तुत व्रत के द्वारा अत्यन्त नहीं रहता। जो व्यक्ति चोरी करता है वह अपने जीवन को तो सीमित करे। जोखिम में डालता ही है साथ ही वह अपने परिवार को भी खतरे परस्त्री से तात्पर्य अपनी धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी में डाल देता है। चोरी करने वाला धन तो प्राप्त कर लेता है किन्तु स्त्रियों से है। चाहे थोड़े समय के लिए किसी को रखा जाय या उसका शांति, सम्मान और सन्तोष नष्ट हो जाता है। चोरी करने / उपपत्नी के रूप में, किसी की परित्यक्ता, व्यभिचारिणी, वेश्या, वाले के मन में अशांति की ज्वालाएं धधकती रहती हैं। उसका मन दासी या किसी की पत्नी अथवा कन्या-ये सभी स्त्रियाँ परस्त्रियाँ हैं। सदा भय से आक्रान्त रहता है। उसका आत्म-सम्मान नष्ट हो जाता उनके साथ उपभोग करना अथवा वासना की दृष्टि से देखना, है, उसमें आत्मग्लानि पनपने लगती है। क्रीड़ा करना, प्रेम पत्र लिखना या अपने चंगुल में फंसाने के लिए चोरी का प्रारम्भ छोटी वस्तुओं से होता है और वह आदत विभिन्न प्रकार के उपहार देना, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास धीरे-धीरे पनपने लगती है। जैसे साँप का जहर धीरे-धीरे सारे / करना, उसकी इच्छा के विपरीत काम-क्रीड़ा करना, वह बलात्कार शरीर में व्याप्त हो जाता है वैसे ही चोरी का व्यसन-रूपी जहर भी है; और इसकी इच्छा से करना परस्त्री-सेवन है। जीवन में परिव्याप्त होने लगता है। इसलिए सभी धर्म-प्रवर्तकों ने जनतन्त्रवादी समाज के लिए व्यसनमुक्ति एक ऐसी विशिष्ट चोरी को त्याज्य माना है। वे उसे असामाजिक कृत्य, राष्ट्रीय आचार पद्धति है जिसके परिपालन से गृहस्थ अपना सदाचारमय अपराध और मानवता के विरुद्ध उपक्रम मानते हैं। भगवान जीवन व्यतीत कर सकता है और राष्ट्रीय कार्यों में भी सक्रिय महावीर ने कहा-बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करो। योगदान दे सकता है। दर्शन के दिव्य आलोक में ज्ञान के द्वारा यहाँ तक कि दाँत कुरेदने के लिए एक तिनका भी न लो। कोई भी / चारित्र की सुदृढ़ परम्परा स्थापित कर सकता है। यह ऐसी एक चीज आज्ञा लेकर ग्रहण करनी चाहिए। वैदिक धर्म में भी चोरी का | आचार संहिता है जो केवल जैन गृहस्थों के लिए ही नहीं किन्तु स्पष्ट निषेध है। किसी की भी कोई चीज न ग्रहण करे महात्मा ईसा | मानव-मात्र के लिए उपयोगी है। वह नागरिक जीवन को समृद्ध ने भी कहा-'तुम्हें चोरी नहि करनी चाहिए।' और सुखी बना सकती है तथा निःस्वार्थ कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर वह राष्ट्र में अनुपम बल और ओज का संचार कर सकती 7) परस्त्री-सेवन है, सम्पूर्ण मानव समाज, में सुख-शान्ति और निर्भयता भर सकती भारत के तत्त्वदर्शियों ने कामवासना पर नियन्त्रण करने हेतु है। अतः व्यसनमुक्त जीवन सभी दृष्टियों से उपयोगी और अत्यधिक बल दिया है। कामवासना ऐसी प्यास है, जो कभी भी उपादेय है। बुझ नहीं सकती। ज्यों-ज्यों भोग की अभिवृद्धि होती है त्यों-त्यों वह मनुष्य चाहे न बदले पर उसके विचार बदलते हैं। तभी तो एक ही झटके में महाभोगी महायोगी बन जाता है। काण -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि ECORAN 2.00 UNOD 00000000000 MarDHOONSOORDS 96.608:oles.6.06. DO 60.000 पाय -AUROO 20. 0 00000000.0.5 DISODEODEODODOD DAND 3D 50.00