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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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जीवन के कांटे : व्यसन
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
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राष्ट्र की अमूल्य निधि
व्यसन की परिभाषा स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारतीयों का उत्तरादायित्व व्यसन शब्द संस्कृत भाषा का है जिसका तात्पर्य है 'कष्ट'। अत्यधिक बढ़ गया है। देश के सामने अनेक विकट समस्याएँ हैं। यहाँ हेतु में परिणाम का उपचार किया गया है। जिन प्रवृत्तियों का उन सभी समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या है राष्ट्र की नैतिक, परिणाम कष्टकर हो, उन प्रवृत्तियों को व्यसन कहा गया है। व्यसन चारित्रिक दृष्टि से रक्षा करना। वही राष्ट्र की अमूल्य निधि है। एक ऐसी आदत है जिसके बिना व्यक्ति रह नहीं सकता। व्यसनों राष्ट्र का सामूहिक विकास इसी आदर्शोन्मुखी उत्कर्ष पर निर्भर है। की प्रवृत्ति अचानक नहीं होता। पहले व्यक्ति आकर्षण से करता है पवित्र चरित्र का निर्माण करना और उसकी सुरक्षा करना, सैनिक
फिर उसे करने का मन होता है। एक ही कार्य को अनेक बार रक्षा से भी अधिक आवश्यक है। भौतिक रक्षा की अपेक्षा | दोहराने पावर व्यसन बन जाता है। आध्यात्मिक परम्परा का रक्षण सार्वकालिक महत्त्व को लिए हुए है। आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समुन्नत राष्ट्र भी नैतिकता व चारित्रिक
व्यसन बिना बोये हुए ऐसे विष-वृक्ष हैं जो मानवीय गुणों के उत्कर्ष के अभाव में वास्तविक सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर
गौरव को रौरव में मिला देते हैं। ये विष-वृक्ष जिस जीवन भूमि पर सकता। अर्थमूलक उन्नति से वैयक्तिक जीवन को भौतिक समृद्धि की
पैदा होते हैं उसमें सदाचार के सुमन खिल ही नहीं सकते। मानव में दृष्टि से समाज में भले ही उच्चतम स्थान प्राप्त हो; किन्तु
ज्यों-ज्यों व्यसनों की अभिवृद्धि होती है, त्यों-त्यों उसमें सात्त्विकता जन-जीवन उन्नत-समुन्नत नहीं हो सकता।
नष्ट होने लगती है। जैसे अमरबेल अपने आश्रयदाता वृक्ष के सत्त्व
को चूसकर उसे सुखा देती है, वैसे ही व्यसन अपने आश्रयदाता भौतिक उन्नति से वास्तविक सुख-शान्ति नहीं
(व्यसनी) को नष्ट कर देते हैं। नदी में तेज बाढ़ आने से उसकी भारत में अतीत काल से ही मानवता का शाश्वत मूल्य रहा
तेज धारा से किनारे नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही व्यसन जीवन के है। समाजमूलक, आध्यात्मिक परम्परा के प्रबुद्ध तत्त्व-चिन्तकों ने
तटों को काट देते हैं। व्यसनी व्यक्तियों का जीवन नीरस हो जाता मानवों को वैराग्यमूल त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने की प्रबल
है, पारिवारिक जीवन संघर्षमय हो जाता है और सामाजिक जीवन प्रेरणा दी जिससे मानवता की लहलहाती लता विश्व मण्डप पर
में उसकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है। प्रसरित होकर राष्ट्रीय विमल विचारों के तथा पवित्र चरित्र के सुमन खिला सके और उन सुमनों की सुमधुर सौरभ जन-जीवन में | व्यसनों की तुलना ताज़गी, स्फुरणा और अभिवन जागृति का संचार कर सके।
व्यसनों की तुलना हम उस दलदल वाले गहरे गर्त से कर ___राजनैतिक श्रम से अर्जित स्वाधीनता की रक्षा धर्म, नीति, | सकते हैं जिसमें ऊपर हरियाली लहलहा रही हो, फूल खिल रहे सभ्यता, संस्कृति और आत्मलक्ष्यी संस्कारों को जीवन में मूर्तरूप हों, पर ज्यों ही व्यक्ति उस हरियाली और फूलों से आकर्षित होकर देने से ही हो सकती है। केवल नव-निर्माण के नाम पर विशाल उन्हें प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता है त्यों ही वह दल-दल में फँस बाँध, जल से पूरित सरोवर, लम्बे, चौड़े राजमार्ग और सभी } जाता है। व्यसन भी इसी तरह व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित सुख-सुविधा सम्पन्न भवनों का निर्माण करना अपर्याप्त है और न करते हैं, अपने चित्ताकर्षक रूप से मुग्ध करते हैं, पर व्यक्ति के केवल यन्त्रवाद को प्रोत्साहन देना ही पर्याप्त है। जब तक जीवन जीवन को दलदल में फँसा देते हैं। व्यसन व्यक्ति की बुद्धिमता, व्यसनों के घुन से मुक्त नहीं होगा, तब तक राष्ट्र का और जीवन
कुलीनता, सभी सद्गुणों को नष्ट करने वाला है। का सच्चा व अच्छा निर्माण नहीं हो सकता। एतदर्थ ही गीर्वाण गिरा के एक यशस्वी कवि ने कहा है- .
व्यसनों के अठारह प्रकार __"मृत्यु और व्यसन इन दोनों में से व्यसन अधिक हानिप्रद है।
यों तो व्यसनों की संख्या का कोई पार नहीं है। वैदिक ग्रन्थों क्योंकि मृत्यु एक बार ही कष्ट देती है, पर व्यसनी व्यक्ति जीवन में व्यसनों की संख्या अठारह बताई है। उन अठारह में दस व्यसन भर कष्ट पाता है और मरने के पश्चात् भी वह नरक आदि में कामज हैं और आठ व्यसन क्रोधज हैं। कामज व्यसन हैंविभिन्न प्रकार के कष्टों का उपभोग करता है। जबकि अव्यसनी (१) मृगया (शिकार), (२) अक्ष (जुआ), (३) दिन का शयन, जीते जी भी यहाँ पर सुख के सागर पर तैरता है और मरने के | (४) परनिन्दा, (५) परस्त्री-सेवन, (६) मद, (७) नृत्य सभा, पश्चात् स्वर्ग के रंगीन सुखों का उपभोग करता है।"
(८) गीत-सभा, (९) वाद्य की महफिल, (१०) व्यर्थ भटकना।
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