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१०४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण
निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति भव्य जीवमें ही होती है, अभव्य जीयमे नहीं। तथा उस भव्य जीवमें उसकी उत्पत्ति मोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप कषायोंकी क्रोधप्रकृतियोंका यथास्थान यथायो ग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर शद्ध स्वभाव के रूपमें उत्तरोत्तर प्रकर्षको लेकर होती है । इसकी प्रतिक्रिया निम्न प्रकार है
(क) अभव्य और भव्य दोनों प्रकारके जीवोंकी भाववती शक्तिका अनादिकालसे अनन्तानुबन्धी आदि उक्त चारों कषायोंकी क्रोध-प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभाव परिणमन होता आया है। दोनों प्रकारके जीवोंमें उस अदयारूप विभावपरिणमनकी समाप्तिमें कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासकी योग्यता भी स्वभावतः विद्यमान है। भव्य जीवोंमें तो उस अदयारूप विभाव परिणतिको समाप्तिमें अनिवार्य कारणभूत आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासको योग्यता भी स्वभावतः विद्यमान है। इस तरह जिस भव्य जीवमें जब क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास हो जानेपर उक्त करणलब्धिका भी विकास हो जाता है तब सर्वप्रथम उस करणलब्धिके बलसे उस भव्य जीवमें मोहनीयकर्मके भेद दर्शनमोहनीयकर्मकी यथासंभवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृतिरूप तीन प्रकृतियोंका व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथमभेद अनन्तानुबंधीकषायके नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भी यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर चतुर्थ गणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्सिका शद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें एक प्रकारका जीवदया-रूप परिणमन होता है।
(ख) इसके पश्चात् उस भव्यजीवमें यदि उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विशेष उत्कर्ष हो जावे, तो उसके बलमें उसमें चारित्रमोहनीय कर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध-प्रकृतिका भी क्षयोपशम होनेपर पंचम गुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूप में दूसरे प्रकारका जीवदयारूप परिणमन होता है।
(ग) इसके भी पश्चात् उस भव्यजीवमें यदि उस आत्मोमुखता-रूप करणलब्धिका और विशेष उत्कर्ष हो जावे तो उसके बलसे उसमें चारित्रमोहनीयकर्मके ततीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायको नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ-प्रकृतियोंके साथ क्रोध-प्रकृतिका भी क्षयोपशम होनेपर सप्तमगुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें तीसरे प्रकारका जीवदयारूप परिणमन होता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सप्तमगुणस्थानको प्राप्त जीव सतत सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानों में अन्र्मुहूर्त कालके अन्तरालसे झूलेकी तरह झूलता रहता है।
(घ) उक्त प्रकार सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानोंमें झूलते हुए जीवमें यदि सप्तम गुणस्थानसे पूर्व ही दर्शनमोहनीयकर्मकी उक्त तीन और चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी उक्त चार-इन सात प्रकृतियोंका उपशम या क्षय हो चुका हो, अथवा सप्तम गुणस्थानमें ही उनका उपशम या क्षय हो जावे तो उसके पश्चात् वह जीव उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानोंमें क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके रूप में और भी विशेष उत्कर्ष प्राप्त कर लेता है और तब नवम गुणस्थानमें हो उस जीवमें चारित्रमोहनीयकम के उक्त द्वितीय और तृतीय भेदरूप
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