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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षाके अन्तर्गत उपयोगी
प्रश्नोत्तर १ को सामान्य समीक्षा प्रश्नोत्तर १ के आवश्यक अंशोंके उद्धरण
पूर्वपक्ष १-द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं? त० च० पृ० १।
उत्तरपक्ष १-द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्त-कर्म-सम्बन्ध नहीं है ।-त० च० १० १।।
पूर्वपक्ष २-इस प्रश्नका उत्तर जो आपने यह दिया है कि व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्त-कर्म सम्बन्ध नहीं है, सो यह उत्तर हमारे प्रश्नका नहीं है, क्योंकि हमने द्रव्यकम और आत्माका निमित्तनैमित्तिक तथा कर्तृ-कर्म सम्बन्ध नहीं पूछा है ।- त० च० पृ० ४ ।
उत्तरपक्ष २-यह ठीक है कि प्रश्नका उत्तर देते हुए समयसारकी ८० से ८२ तककी जिन तीन गाथाओंका उद्धरण देकर निमित्त-नैमित्तिकभाव दिखलाया गया है वहाँ कर्त-कर्म सम्बन्धका निर्देश मात्र इसलिए किया गया है ताकि कोई ऐसे भ्रममें न पड़ जाय कि यदि आगममें निमित्तमें कर्तपनेका व्यवहारसे व्यपदेश किया गया है तो वह यथार्थमें कर्ता बनकर कार्यको करता होगा। वस्तुतः जैनागममें कर्ता तो उपादानको ही स्वीकार किया गया है और यहो कारण है कि जिनागममें कर्ताका लक्षण "जो परिणमन करता है वह कर्ता होता है" यह किया गया है ।-त० च० पृ० ८।।
पूर्वपक्ष ३-इस प्रश्नका आशय यह था कि जीवमें जो क्रोध आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते हैं क्या वे द्रव्यकर्मोदयके बिना होते हैं या द्रव्यकर्मोदयके अनुरूप होते हैं। संसारी जीवका जो जन्म-मरणरूप चतुर्गतिभ्रमण प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है क्या वह भी कर्मोदयके अधीन हो रहा है या यह जीव स्वतंत्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गतिभ्रमण कर रहा है।
आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें दिया गया है और न इस दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है-यद्यपि आपके प्रथम वक्तव्यके ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था। आपने अपने दोनों वक्तव्योंमें निमित्त-कर्तृ-कर्म सम्बन्धकी अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्नके उत्तरको टालनेका प्रयत्न किया है।
यह तो सर्वसम्मत है कि जीव अनादिकालसे विकारी हो रहा है। विकारका कारण कर्मबन्ध है, क्योंकि दो पदार्थोके परस्पर बन्ध बिना लोकमें विकार नहीं होता। कहा भी है-“द्वयकृतो लोके विकारो भवेत" -पद्मनन्दि-पंचविंशतिका २३-७ ।
यदि क्रोध आदि विकारीभावोंको कर्मोदय बिना मान लिया जावे तो उपयोगके समान वे भी जीवके स्वभाव-भाव हो जायेंगे और ऐसा माननेपर इन विकारीभावोंका नाश न होनेसे मोक्षके अभावका प्रसंग आ जावेगा।-त० च० पृ० १०।।
उत्तरपक्ष ३-इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रथम उत्तरमें ही हम यह बतला आये हैं कि संसारो आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमणमें द्रव्यकर्मका उदय निमित्त मात्र है। विकारभाव और चतर्गतिपरिभ्रमणका मुख्यकर्ता तो स्वयं आत्मा ही हैं। इत तथ्यकी पुष्टिमें हमने समयसार, पंचास्तिकायटीका, प्रवचनसार और उसकी टीकाके अनेक प्रमाण दिये हैं। किन्तु अपर पक्ष इस उत्तरको अपने प्रश्नका समाधान
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