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पंचम खण्ड : ६४७ हैं। द्रव्यसंग्रह, प्रवचनसार, देवागम, समयसार, समयसारकलश, धवला, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थोंके आधारसे कर्म और विकारी भावों में कर्ता-कर्म सम्बन्ध बतानेका प्रयत्न किया गया और उनको विकारक - विकार्यं सिद्ध किया गया तथा कार्मण वर्गणा स्वयं कर्मरूप परिणमन करती है। इसमें श्लोकके 'स्वयमेव' सुप्रसिद्ध शब्द का अर्थ 'अपने आप' न करके 'अपने रूप' परिणमन करती हैं यह अर्थ प्रकट किया गया है ।
इस प्रतिशंकाका समाधान करते हुए पं० फूलचन्द्रजी और सहयोगियोंने स्पष्टीकरण दिया कि हेतुकर्ता शब्दका व्यपदेश निमित्त कारणमें ही किया गया है, क्योंकि सभी निमित्त धर्म द्रव्यकी तरह उदासीन निमित्त ही हैं । चाहे उन्हें प्रेरक निमित्त कहो, चाहे अंतरंग निमित्त कहो, वह तो परद्रव्य ही हैं। इष्टोपदेश श्लोक ३५ के अनुसार कोई निमित्त अज्ञानीको ज्ञानी नहीं बना सकता और ज्ञानीको अनेक अज्ञानी मिलकर भी अज्ञानी नहीं बना सकते तथा कोई भी निमित्त अभव्यको भव्य और भव्यको अभव्य नहीं बना सकता है । "समयसार कलश" ५१ में कहा गया है कि जो परिणमन करता है, वही उसका कर्ता है । जो परिणमन होता है, वह कर्म है और जो परिणति होती है वह क्रिया है । वास्तवमें ये तीनों भिन्न नहीं है । निश्चयसे ये तीनों एक ही द्रव्य में घटित होते हैं । निमित्तकर्ताको उपचारसे ही कर्ता मानना युक्तिसंगत है ।
जहाँपर निश्चय उपादान होता है वहाँ अन्य द्रव्य उसका अविनाभाव सम्बन्धवश व्यवहार हेतु कहा जाता है। धवला पुस्तक ६ ० ५९ में कहा है- कर्मसंज्ञक पुद्गल द्रव्यमें उपचारसे कर्तापनेका आरोप किया जाता है ।
इसके पश्चात् तृतीय दौर में फिरसे पूर्व पक्षने प्रतिशंका उपस्थित की कि जो क्रोधादि विकार होते हैं, वह बिना कर्मोदयके होते हैं क्या या अन्य कर्मोदय के अनुरूप होते हैं संसारी जीवका चतुर्गति रूप भ्रमण प्रत्यक्ष देखा जाता है कि यह कर्माधीन हो रहा है। यदि बिना कर्मोदयके विकार स्वीकार किया आवे तो वह ज्ञानादिकी तरह स्वभाव बन जायगा । " समयसारकलश" में भी आत्माको भाव्य और फलदान शक्ति युक्त कर्मको भावक कहा गया है। इस प्रकार कमोंकी शक्तिको प्रदर्शित करनेवाले परमात्मप्रकाश, मूलाराधना, स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, इष्टोपदेश, उपासकाध्ययन, आत्मानुशासन, समयसारकला आविके प्रमाण देकर कमको विकारका कर्ता स्वीकार करनेकी प्रेरणा दी तथा उपचार कर्ताको निश्चयकर्ता बतलानेका प्रयत्न किया गया तथा उपादान और निमित्तकी समग्रताका अर्थ दो प्रकारसे किया गया। एक तो पद्गुणी हानिवृद्धि रूप परिणमन परनिरपेक्ष होता है, दूसरा अनुकूल निमित्तोंके सहयोगसे विकारी परिणमन होता है ।
भावलिंग की प्राप्ति के लिए द्रव्यलिंगकी प्राप्ति अनिवार्य कारण बतलाकर उपादानकी जागृतिमें निमित की अनिवार्यता सिद्ध की गई है । तथा यह शंका भी उठाई गई है कि जब उपादान अपना काम कर लेता है, तब निमित्तकी आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? अतः दोनों कारणोंने कार्य होता है, ऐसा स्वीकार करो ।
इस प्रतिशंका ३ का समाधान करते हुए उत्तरपक्षने कहा कि कर्मका उदय निमित्त मात्र है, मुख्य कर्ता नहीं है । क्योंकि “समयसार कलश" ५३ में कहा गया है- दो द्रव्य एक होकर परिणमन नहीं करते, तथा दो द्रव्योंका एक परिणाम भी नहीं होता है, दो द्रव्योंकी एक परिणति (क्रिया) भी नहीं होती, क्योंकि जो अनेक द्रव्य हैं वे अनेक ही रहेंगे, एक नहीं होते । आगममें कथन अवश्य ही कहीं निमित्तकी मुख्यतासे होता है, कहीं उपादानकी मुख्यतासे परका संपर्क जीव अपनी इच्छासे करता है, परपदार्थ इसे बलात् अपने रूप नहीं परिणमा सकते हैं। निश्चयनय अभिन्न कर्ता-कर्म बतलाता है, व्यवहारनय भिन्न कर्ता-कर्म कहकर संयोगकी उपस्थितिका ज्ञान कराता है ।
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