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६४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
शांति-पथका प्रदर्शन करना है । कुछ अनुयोगोंमें व्यवहार प्रधान कथन है, तो निश्चय उसमें गौण है। किसीमें निश्चय प्रधान कथन है, तो उसमें व्यवहार गौण है। नयोंका अभाव किसी भी अन्योगमें देखनेको नहीं मिलेगा। क्योंकि वस्तुस्वरूपको समझनेके लिए दोनों नयोंका ज्ञान आवश्यक है। जिज्ञासु यदि किसी भी नय को अस्वीकार कर देगा तो वह मिथ्यादृष्टि ही बना रहेगा। वह आगमका भाव और वस्तुस्वरूपको कभी भी नहीं समझ सकता है। वस्तुस्वरूपका ज्ञान न होनेसे उसे सुख शान्तिका पथ मोक्षमार्ग कभी प्राप्त नहीं हो सकता है ।
जहाँ ज्ञान दोनों नयोंका आवश्यक है वहाँ श्रद्धा दोनों नयोंकी नहीं होती है। श्रद्धा उसीकी होती है जो अपनेसे पूज्य और बड़ा हो। अपनेको पूज्य भी वही है जिससे अपने सुखकी प्राप्ति रूप प्रयोजनकी पूर्ति हो। अतः श्रद्धा निश्चयनयके विषयभूत त्रिकाली ध्रुव स्वभावकी होती है। क्योंकि उसीका आश्रय लेनेसे मोक्षमार्ग या धर्मकी प्राप्ति होती है । व्यवहारनय अशुद्ध अवस्था या अखण्ड वस्तुको खण्ड करके बतलाता है । अर्थात् त्रिकाल वस्तुका स्वरूप जैसा है, व्यवहारनय वैसा नहीं बतलाता है । अतः ज्ञान का ज्ञेय होकर भी वह ध्यानका ध्येय या श्रद्धाका श्रद्धेय नहीं है। इसलिए श्रद्धाकी अपेक्षा हेय कहा गया है। क्योंकि उसकी श्रद्धा से या ध्यानसे मुक्तिका मार्ग या धर्मका प्रारम्भ नहीं होता है। यद्यपि हेय, उपादेयका निर्णय ज्ञान ही कराता है, किन्तु ज्ञान यह कभी नहीं कहता है कि ये विकारादि आत्माका असली स्वरूप है या आश्रय करने योग्य है। शुद्धाशुद्ध पर्याय या गुणभेद आदिको जानकर भी उससे उपेक्षित रहता है। इसलिए व्यवहारको हेय और निश्चयनयको उपादेय कहा गया है।
___ समय-समय पर ऐसा जरूर देखा गया है कि धर्मोपदेशककी रुचिके अनुसार कभी-कभी निश्चयप्रधान कथन-शैलीकी मुख्यता रही तो कभी व्यवहार शैलीकी प्रधानता रही है, वहाँ दूसरा धर्म गौण रहता है। पहला धर्म मुख्य हो जाता है। यदि इस दृष्टिसे श्रोतागण सुननेका प्रयास करें तो कभी बैर-विरोध नहीं बढ़ सकता है।
___यहाँ गौणका अर्थ अभाव नहीं है, किन्तु उसका सद्भाव होते हुए भी इस समय उसका प्रयोजन नहीं है, जिसका प्रयोजन है, वह कथनमें आ रहा है। ज्ञान दोनोंका किया जाता है, किन्तु ध्यान एकका ही किया जाता है । क्योंकि उपयोग एक समयमें एकको ही लक्ष्य बनाता है । एक समयमें दो उपयोग नहीं होते और दो समयमें एक उपयोग नहीं होता है । ध्यान भी उसीका किया जाता है, जिससे अपने प्रयोजनकी पूर्ति हो । संसारमें रहते हए जीवका एकमात्र प्रयोजन सुख प्राप्ति है। वह सुखकी प्राप्ति अपने स्वभावके आश्रयसे होती है और त्रिकाली शाश्वत स्वभावको बतानेवाला निश्चयनय है। व्यवहारनय तो वस्तुके खण्ड रूपया मिश्रित अवस्थाका ज्ञान कराता है। जिसके ध्यानसे राग एवं संसारकी ही वृद्धि होती है । अतः आचार्योंने निश्चयनयको भुतार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा है।
आजसे कुछ दशाब्दियों पूर्व व्यवहार क्रिया-काण्डका ही बाहुल्य रहा है। देखा-देखी परम्परा एवं भावशन्य धर्म क्रियाएँ, बल्कि यहाँ तक कि गृहीत मिथ्यात्वका भी पोषण होता रहा है। लोग धीरणेन्द्र, पद्मावती आदि कुदेवोंकी पूजा जिनेन्द्र मन्दिरमें जिनेन्द्र भगवान्की तरह करते थे। अतः पण्डित टोडरमलजीको सत्यका प्रचार करने के लिए महान् संघर्षका सामना करना पड़ा था, बल्कि इसी संघर्षको झेलते हए उन्हें अपना बलिदान भी देना पड़ा था।
ऐसा ही युग इस बीसवीं शताब्दीमें आत्मवेत्ता, अध्यात्म शैलीके महान् प्रचारक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी उदभवके समय देखा गया है। यद्यपि इनके पूर्व ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी एवं विद्वदप्रवर पुज्य
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