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अर्थात् उन्होंने (नन्दा और सुनन्दा के पुत्रों ने दष्टियुद्ध प्रारम्भ किया, सबसे पहले भरत ने अपने भाई को देखा, मानो कैलास पर्वत ने सुमेरु पर्वत को देखा हो। काले और सफेद बादलों के समान उसकी दष्टि उस समय ऐसी शोभित हो रही थी मानो नीले और सफेद कमलों की वर्षा हो रही हो। उसके बाद बाहुबली ने भरत पर दृष्टिपात किया मानो सूर्य ने सरोवर में कुमुद-समूह को देखा हो। पराजित भरत का मुख उत्तम कुल-वधू की तरह सहसा नीचे झुक गया। बाहुबली की विशाल भौहोंवाली दृष्टि से भरत की दृष्टि ऐसी नीची हो गयी जैसे सास से ताड़ित चंचलचित्त नवयौवना कुल-वधू नम्र हो जाती है।
दृष्टियुद्ध में पराजित होने पर भरत एवं बाहुबली में जल-युद्ध एवं बाहु-युद्ध भी हुए और इन दोनों युद्धों में भरत पराजित हो गए। राजा बाहुबली के मन में अपने अग्रज भ्राता के लिए असीम सम्मान भाव था। इसीलिए उन्होंने बाहु-युद्ध में विजयी होने पर पृथ्वी मंडल के विजेता राजा भरत को हाथों पर इस प्रकार से उठा लिया जैसे जन्म के समय बालजिन को इन्द्रराज ने श्रद्धा से बाहओं पर उठा लिया था---
उच्चाइउ उभय-करेंहिं णरिन्दु । सक्केण व जम्मणे जिण-वरिन्दु ।।
एत्थन्तरें बाहुबलीसरासु । आमेल्लिउ देवेहि कुसुम-वासु ॥ (पउमचरिउ, सन्धि ४/११) राजा बाहुबली के जयोत्सव पर स्वर्ग के देवों ने हर्षातिरेकपूर्वक पुष्प वृष्टि की । सम्राट भरत इस पराजय से हतप्रभ हो गये । लोकनीति का त्याग करके उन्होंने अपने अनुज बाहुबली के पराभव के लिए अमोघ शस्त्र 'चक्ररत्न' का स्मरण किया। उदार बाहुबली पर 'चक्ररत्न' के प्रयोग को देखकर दोनों पक्षों के न्यायप्रिय योद्धाओं ने सम्राट भरत के आचरण की निन्दा की। राजा बाहुबली चरमशरीरी थे। फलतः चक्ररत्न उनकी परिक्रमा करके सम्राट् भरत के पास निष्फल होकर लौट आया।
अपने अग्रज भरत की साम्राज्य लिप्सा एवं राज्यलक्ष्मी को हस्तगत करने के लिए स्वबन्धु पर चक्ररत्न के वजित प्रयोग को दृष्टिगत करते हुए परमकारुणिक अपरिग्रह मूति बाहुबली में इस असार संसार के प्रति विरक्त भाव उत्पन्न हो गया। नीतिपरायण धर्मज्ञ सम्राट भरत के इस अभद्र आचरण को देखकर बाहुबली सोचने लगे
अचिन्तयच्च किन्नाम कृते राज्यस्य भंगिनः । लज्जाकरो विधिर्भात्राज्येष्ठेनायमनुष्ठितः ।। विपाककटुसाम्राज्यं क्षणध्वंसि धिगस्त्विदम् । दुस्त्यजं त्यजदप्येतदंगिभिर्दुष्कलत्रवत् ।। कालव्यालगजेनेदमायुरालानकं बलात् । चाल्यते यद्वलाधानं जीवितालम्बनं नृणाम् ।। शरीरवलमतच्च गजकर्णवदस्थिरम् । रोगा खू पहतं चेदं जरद्दहकुटीरकम् । इत्यशाश्वतमप्येतद् राज्यादि भरतेश्वरः । शाश्वतं मन्यते कष्टं मोहोपहतचेतनः।।
(आदिपुराण, पर्व ३६/७०-७१, ८८-६०) अर्थात हमारे बड़े भाई ने इस नश्वर राज्य के लिए यह कैसा लज्जाजनक कार्य किया है । यह साम्राज्य फलकाल में बहुत दुःख देने वाला है, और क्षणभंगुर है इसलिए इसे धिक्कार हो । यह व्यभिचारिणी स्त्री के समान है क्योंकि जिस प्रकार व्यभिचारिणी स्त्री एक पति को छोड़कर अन्य पति के पास चली जाती है उसी प्रकार यह साम्राज्य भी एक पति को छोड़कर अन्य पति के पास चला जाता है । जिसके बल का सहारा मनुष्यों के जीवन का आलम्बन है ऐसा यह आयुरूपी खम्भा कालरूपी दुष्ट हाथी के द्वारा जबरदस्ती उखाड़ दिया जाता है। यह शरीर का बल हाथी के कान के समान चंचल है और यह जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी झोंपड़ा रोगरूपी चूहों के द्वारा नष्ट किया हुआ है। इस प्रकार यह राज्यादि सब विनश्वर हैं। फिर भी, मोह के उदय से जिसकी चेतना नष्ट हो गयी है ऐसा भरत इन्हें नित्य मानता है यह कितने दुःख की बात है ?
चिन्तन की इसी प्रक्रिया में उन्होंने राज्य के त्याग का निर्णय ले लिया। अपने निर्णय से सम्राट भरत को अवगत कराते हुए उन्होंने कहा
देव मझु खमभाउ करेज्जसु । जं पडिकूलिउ तं म रू सेज्जसु । अप्पउ लच्छिविलासें रंजहि । लइ महि तुहुँ जि णराहिव भुजहि ।
णहणिवडियणीलुप्पल विट्ठिहि । हउँ पुणु सरणु जामि परमेट्ठिहि। (महापुराण, सन्धि १८/२) अर्थात् हे देव, मुझ पर क्षमाभाव कीजिए और जो मैंने प्रतिकूल आचरण किया है उस पर क्रुद्ध मत होइए। अपने को लक्ष्मीविलास से रंजित कीजिए। यह धरती आप ही लें, और इसका भोग करें। मैं, जिन पर आकाश से नीलकमलों की वृष्टि हुई है, ऐसे परमेष्ठी आदिनाथ की शरण में जाता हूं।"
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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