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छात्र असन्तोष क्यों ?
0 श्री बी० पी० जोशी
(भू० पू० निदेशक, राज्य विज्ञान शिक्षण संस्थान, उदयपुर)
आज हमारे विभिन्न शिक्षा केन्द्रों में चाहे वे सैकण्डरी स्कूल हों, हायर सैकण्डरी स्कूल हों, कॉलेज हों या विश्वविद्यालय हों या किसी प्रकार के व्यावसायिक अथवा सामान्य डिग्री कॉलेज हों, हर जगह विद्यार्थियों द्वारा किसी न किसी प्रकार का आन्दोलन चलाना साधारण सी बात हो गई है। अभी तक शिक्षाशास्त्री, शिक्षामर्मज्ञ, शिक्षाविद् तथा शैक्षिक नीति-निर्धारकों द्वारा कोई सन्तोषजनक कदम इन आन्दोलनों को शान्त करने के लिए नहीं उठाया जा सका है।
वस्तुत: समस्त विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों में असन्तोष फैला हुआ है और युवापीढ़ी जीवन के विविध सन्दर्भो में अपनी अनियमितताओं, अनैतिकता और दुर्व्यवहारों से अपने से श्रेष्ठ लोगों को त्रस्त करना अपने लिए प्रतिष्ठा की बात समझते हैं। सामान्य जनता ही नहीं वरन् हमारे देश की विभिन्न राज्यों की सरकारें भी इसके सामने घुटने टेक देने के रूप में अपने नियमों में परिवर्तन करती रही हैं, स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई है कि परीक्षाभवन में परिवेक्षकों को धमकाना, सड़कों पर दुकानदारों को लूट लेना, आक्रोश में दुकानों, सिनेमाघरों में तोड़-फोड़ मचाना अथवा आग लगा देना, अपने अध्यापकों के प्रति अशिष्ट व्यवहार दिखाना, विश्वविद्यालय के कुलपतियों तथा अन्य अध्यापकों तथा अधिकारियों का घेराव करके अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य करना आजकल की सामान्य बातें हो चली हैं।
वैसे तो बहुत से विचारकों ने अपने-अपने मौलिक दृष्टिकोण इस समस्या के बारे में प्रकट किये हैं, परन्तु आमतौर पर यह विचार सबसे प्रबल है कि विद्यार्थी आन्दोलन के लिए विद्यार्थी को ही दोषी नहीं ठहराना चाहिए; बल्कि इसके लिए देश की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों को ही उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
भारत का विद्याथींजगत् गहन व्याकुलता एवं अशान्ति की अवस्था में है । देश के सभी भाग विद्यार्थी, उपद्रवों एवं विद्यार्थी-अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं । वास्तव में इन घटनाओं ने ऐसे रूप धारण किए हैं कि ये कानून एवं व्यवस्था के लिए समस्या बन गये हैं। इस समस्या पर प्रकाश डालने से पूर्व इसके परिणाम हमको स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। यह किलनी दयनीय स्थिति है। संस्कृति, कुलीनता तथा शिष्टाचार के बन्धन शिथिल होने की यह स्थिति अत्यन्त शोचनीय है और इसकी पूर्ति में एक पीढ़ी से भी अधिक समय लगेगा। अध्ययन के घण्टों की अपार क्षति हुई है। उसमें भी अधिक क्षति ध्यान लगाकर कठिन कार्य करने की आदत छूट जाने की हुई है। अविवेकपूर्ण, शरारती व विनाश की भावना का जो विकास छात्रों में हुआ है, उसके परिणामों की कल्पना नहीं की जा सकती।
छात्र सार्वजनिक सम्पत्तियों को नष्ट कर रहा है, वह तनिक भी यह विचार नहीं करता कि उनका उपयोग वह भी स्वयं बराबर करता रहा है और भविष्य में भी उनके उपयोग की आवश्यकता होगी। वह भूल जाता है कि निकट भविष्य में मजिस्ट्रेट या पुलिस अफसर के रूप में सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करने का दायित्व उस पर भी आयेगा। आवेश के क्षणों में वह नहीं समझता कि जिन चीजों को नष्ट कर रहा है, उसे उसके माता-पिता ने कर
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