________________ हैमशब्दप्रक्रिया उनके व्याकरण-पाण्डित्यके प्रतीक हैं / चन्द्रप्रभामें हैमव्याकरणको कौमुदी रूपमें प्रस्तुत किया गया है। वर्ष प्रबोध, रमल शास्त्र, हस्तसंजीवन, उदयदीपिका, प्रश्नसुन्दरी, वीसायन्त्रविधि उनकी ज्योतिष रचनाएँ है। अध्यात्मसे सम्बन्धित कृतियोंमें मातृकाप्रसाद, ब्रह्मबोध तथा अर्हद्गीता उल्लेखनीय हैं / इन चौबीस ग्रन्थों के अतिरिक्त पंचतीर्थस्तुति तथा भक्तामरस्तोत्रपर उनकी टीकाएँ भी उपलब्ध हैं। संस्कृत की भाँति गुजराती भाषाको भी मेघविजयकी प्रतिभाका वरदान मिला था / जैनधरमदीपक, जैन शासनदीपक, आहारगवेषणा, श्रीविजयदेवसूरिनिर्वाणरास, कृपाविजयनिर्वाणरास, चोविशजिनस्तवन, पार्श्वनाथस्तोत्र आदि उनकी राजस्थानी गुजराती रचनाएँ हैं। यह वैविध्यपूर्ण साहित्य मेघविजयकी बहश्रुतता तथा बहुमुखी प्रतिभा का प्रतीक है। प्रान्तप्रशस्तिके अनुसार सप्तसन्धानकी रचना संवत् 1760 (सन् 1703 ई० में) हुई थी। वियद्रसेन्दूनां (1760) प्रमाणात् परिवत्सरे। .. कृतोऽयमुद्यमः पूर्वाचार्यचर्याप्रतिष्ठितः // मेघविजयने अपनी कुछ अन्य कृतियोंमें भी रचनाकालका निर्देश किया है। उससे उनके स्थितिकालका कुछ अनुमान किया जा सकता है / विजयदेवमाहात्म्यविवरणको प्रतिलिपि मुनि सोमगणिने संवत् 1709 में की थी। अतः उसका इससे पूर्वरचित होना निश्चित है। यह मेघ विजयकी प्रथम रचना प्रतीत होती है। सप्तसन्धान उनकी साहित्य-साधना की परिणति है। यह उनकी अन्तिम रचना है। विजयदेवमाहात्म्य विवरणकी रचनाके समय उनको अवस्था 20-25 वर्षको अवश्य रही होगी। अतः मेघविजयका कार्यकाल 1627 तथा 1710 ई० के बीच मानना सर्वथा न्यायोचित होगा। कथानक-सप्तसन्धान नौ सर्गोंका महाकाव्य है, जिसमें पूर्वोक्त सात महापुरुषोंके जीवनचरित एक साथ अनुस्यूत हैं / बहधा श्लेषविधिसे वणित होनेके कारण जीवनवृत्तका इस प्रकार गुम्फन हुआ है कि विभिन्न नायकोंके चरितको अलग करना कठिन हो जाता है। अतः कथानकका सामान्य सार देकर यहाँ सातों महापुरुषों के जीवनकी घटनाओंको पृथक्-पृथक् दिया जा रहा है / अवतार वर्णन नामक प्रथम सर्गमें चरितनायकोंके पिताओं की राजधानियों, इनकी शासन-व्यवस्था तथा माताओं के स्वप्नदर्शनका वर्णन है। द्वितीय सर्गमें चरित नायककों का जन्म वर्णित है। उनके धरा पर अवतीर्ण होते ही समस्त रोग शान्त हो जाते हैं तथा प्रजा का अम्यदय होता है। तृतीत सर्गमें नायकोंके जन्माभिषेक, नायकरण तथा विवाह का निरूपण किया गया है। पूज्यराज्यवर्णन नामक चतुर्थ सर्गके प्रथम चौदह पद्योंमें आदि प्रभुके राज्याभिषेकके लिये देवताओंके आगमन, ऋषभदेवकी सन्तानोत्पत्ति तथा उनकी प्रजाकी सुख-समृद्धिका वर्णन है। अगले सौलह पद्योंमें कृष्णचरितके अन्तर्गत कौरव-पाण्डवोंके वैर, द्रौपदीके चीरहरण तथा दीक्षाग्रहण आदिकी चर्चा है। सर्गके शेषांशमें तीर्थंकरों द्वारा राजत्याग तथा प्रव्रज्याग्रहण करने का वर्णन है। पंचम सर्गमें काव्यमें वर्णित पाँच तीर्थकरोंके विहार, तपश्चर्या तथा कष्ट सहन का प्रतिपादन हुआ है। उनके प्राकृतिक तथा भौतिक कष्ट सह कर वे तपसे कर्मों का क्षय करते हैं। उनके उपदेशसे प्रजाजन रागद्वेष आदि छोड़कर धार्मिक कृत्योंमें प्रवृत्त हो जाते हैं। छठे सर्गमें जिनेन्द्र कैवल्यज्ञान 1. लिखितोऽयं ग्रन्थः पण्डित श्री 5 श्रीरंग सोमगणिशिष्यमनिसोमगणिना षं०१७०९ वर्षे चैत्रमासे..." श्रीविनयदेवसूरीश्वरराज्ये। विजयदेव माहात्म्य, प्रान्तपुष्पिका / विविध: 299 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org